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आर्थिक सुधारों पर सरकार का रुख

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आर्थिक सुधारों के प्रति कितनी गंभीर है? मैं यह सवाल वैसे व्यक्ति के रूप में नहीं पूछ रहा हूं, जो भारत में ‘सुधारों’ के रूप में किये जा रहे प्रयासों का पक्षधर है या उनका विरोधी है. स्पष्ट कहूं तो इन दोनों श्रेणियों […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आर्थिक सुधारों के प्रति कितनी गंभीर है? मैं यह सवाल वैसे व्यक्ति के रूप में नहीं पूछ रहा हूं, जो भारत में ‘सुधारों’ के रूप में किये जा रहे प्रयासों का पक्षधर है या उनका विरोधी है. स्पष्ट कहूं तो इन दोनों श्रेणियों में मेरी कोई रुचि नहीं है और मैं यह भी नहीं मानता हूं कि भारत की बड़ी समस्याओं का समाधान विधायिका के कामों से हो सकता है. संभव है कि मेरी राय गलत हो, और मैं इसे स्वीकार करता हूं.
यह बात भी सही हो सकती है कि भारत की समस्याओं के लिए नये कानूनों की जरूरत है, जिन्हें एक मजबूत सरकार आसानी से ला सकती है.
इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बहुत सारे लोग सुधारों की उम्मीद में है और उन्हें मोदी सरकार से चमत्कारों की, या कम-से-कम इन सुधारों के द्वारा बड़े बदलाव लाने की अपेक्षा थी. तब सवाल यह उठता है : आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ?
मीडिया और व्यापार जगत में मोदी के समर्थकों को पिछले संसद सत्र से दो अपेक्षाएं थीं- भूमि अधिग्रहण कानून और नया वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था (जीएसटी). ये दोनों उद्योग और शासन के अनुकूल मानी जा रही थीं. जीएसटी से अपेक्षा थी कि इससे सकल घरेलू उत्पादन में 1.5 फीसदी की बढ़त होगी. भूमि अधिग्रहण विधेयक से मैनुफैक्चरिंग व्यवसाय लगाने में आसानी होती.
दोनों में से कोई भी पारित नहीं किया जा सका. निश्चित रूप से इसका एक कारण था कि सत्र की अधिकांश अवधि में कांग्रेस ने संसद नहीं चलने दी, जबकि (जैसा मैं मानता हूं) बाद में वह उस बात पर बहस के लिए तैयार हो गयी, जिसका उस दौरान वह लगातार विरोध कर रही थी.
इस ‘बहस’ के बाद- अगर दोनों पक्षों के एक-दूसरे पर चिल्लाने को बहस करना माना जाये- तो कुछ खास नहीं हुआ और दोनों कानून भी पारित नहीं हुए.
बाद में नरेंद्र मोदी ने भूमि अधिग्रहण विधेयक को वापस लेने की घोषणा की, हालांकि यह स्पष्ट नहीं हुआ कि इसका कारण यह था कि उन्होंने सोचा कि विधेयक में खामियां हैं या इसलिए कि उसे पर्याप्त समर्थन प्राप्त नहीं था.
मेरा सवाल है : मोदी भूमि विधेयक और जीएसटी जैसे सुधारों को लेकर कितने गंभीर हैं? यह पूछने का कारण यह है कि घटनाओं से यह संकेत मिलता है कि वे बहुत गंभीर नहीं हैं.
पिछले हफ्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से उनकी तकरार हुई. गांधी ने मोदी के कामकाज के तरीके को ‘हवाबाजी’ की संज्ञा दी यानी कि वे सिर्फ बतकही करते हैं, काम नहीं. मोदी ने तुरंत पलटवार में कहा- ‘हवालाबाजी’ के आरोपी हैं, वे हमें सीख न दें.
इस तकरार से वही बात साबित होती है, जिसे कई लोग पहले से समझ रहे थे : मोदी चुनावी राजनीति के पैंतरों में माहिर हैं और वे याद रहने लायक मुहावरे बोल सकते हैं. वे प्रचार के दौरान आक्रामक होते हैं.
लेकिन, अच्छी राजनीति का मतलब जरूरी रूप से अच्छा शासन नहीं होता है. राजनीति लोकप्रिय समर्थन प्राप्त करने की कोशिश होती है, पर शासन के लिए विपक्ष के साथ काम करना बहुत जरूरी होता है, भले ही विपक्ष बिगड़ैल बच्चे की तरह ही व्यवहार क्यों न करे.
कांग्रेस वही कर रही है, जो उसे राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने रहने के लिए सही लग रहा है. फिलहाल उसकी राजनीतिक विश्वसनीयता बहुत कम है. संसद में गतिरोध पैदा करना नैतिक नहीं था और उसका कोई विशेष सैद्धांतिक आधार भी नहीं था. लेकिन, वह बहुत अच्छी राजनीति थी. इसने पार्टी को राजनीतिक रूप से और मीडिया में साल भर के बाद प्रासंगिक बनाया. सोनिया गांधी और उनके सहयोगी समाचारों में व्यवधानों और बयानों से ही जगह बना सकते हैं.
कुछ और कर सकने के लिए कांग्रेस बहुत छोटी है.यह बात जानते हुए, जिसका नरेंद्र मोदी को बखूबी इसका अहसास है, उनके पास दो विकल्प हैं. पहला, वे कांग्रेस को बहस का मुद्दा निर्धारित करने दें. अगर वे मोदी पर हमला करें, तो उन्हें पलट कर चतुराई से भरी बातें करनी चाहिए, जिनका लक्ष्य उनके अपने समर्थक हों. ठीक ऐसा ही हुआ लोकसभा की संक्षिप्त बहस में, जब सुषमा स्वराज ने सीधे गांधी परिवार पर हमला बोला, जिनमें वे लोग भी शामिल थे, जो अब जीवित नहीं हैं.
इससे स्वराज को एक दिन का अच्छा मीडिया कवरेज मिल गया, परंतु इसने मॉनसून सत्र को समाप्त कर दिया. मोदी को इस बात की समझ होगी ही. इसके बाद, मोदी ने कांग्रेस पर विकास-विरोधी होने का आरोप लगाया. अगर यह उनकी रणनीति है, तो उनका अनुमान होगा कि विपक्ष संसद के गतिरोध के लिए मीडिया के दबाव में आ जायेगा. यह एक समझदार रणनीति नहीं है क्योंकि, जैसा मैंने कहा, कांग्रेस को व्यवधानों से ही जीवन-ऊर्जा मिल रही है. उसके पास और कोई हथियार नहीं है और मोदी के ‘विकास-विरोधी’ आरोपों का कोई असर नहीं पड़ा है.
दूसरा, मोदी कांग्रेस के साथ समझौता करें और अपने एजेंडे को पूरा करने में मदद के एवज में उसे कुछ लालच दें. अगर यह किसी के इस्तीफे के रूप में नहीं हो सकता है, तो कम-से-कम जांच का ही आदेश दे दें.
पर, यहां पर व्यक्तित्व का मसला है. मेरी राय के अनुसार, मोदी शब्दों से करारा जवाब देने की ललक पर काबू नहीं रख सकते हैं. वे अपमान को नजरअंदाज या बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रखते हैं. इसका नतीजा यह है कि विधेयकों को पारित करने के लिए कांग्रेस का सहयोग लेने का कोई रास्ता नहीं बचा है और मोदी के रवैये में बदलाव के संकेत भी नजर नहीं आ रहे हैं.
शायद यह अस्थायी मामला है और बिहार चुनाव के बाद यह सब समाप्त हो जायेगा. हो सकता है कि मोदी अभी भी चुनावी मनोदशा में हों और अपने विधायी एजेंडे पर गंभीरता दिखाने से पहले आखिरी बाधा को पार करने की प्रतीक्षा में हों.
अगर ऐसा नहीं है, तो यह आश्चर्य करने के लिए हमें मजबूर होना पड़ेगा कि क्या मोदी उन विधेयकों के प्रति गंभीर हैं, जिनको लोग पारित होते देखना चाहते हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि मुझे लगता है कि उन्होंने संसद में कानूनों पर कार्यवाही बढ़ाने में कोई सही ईमानदार कोशिश नहीं की है.
अगर वे खुद ही मानते हैं कि कानून विकास के मुख्य स्रोत हैं, तो उन्हें इनको पारित करने के लिए पूरजोर कोशिश करनी चाहिए थी. उनके रिकॉर्ड को देखते हुए यह कह पाना मुश्किल है कि उन्होंने ऐसा किया है.

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