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नहीं बदलेंगे भारत-पाक रिश्ते

।। पुष्पेश पंत ।।(विदेश मामलों के जानकार)– नवाज शरीफ को सेना के कारण ही अपनी सत्ता गंवानी पड़ी थी और अब वे नहीं चाहेंगे कि ताकतवर सेना को नाखुश किया जाये. वहां विदेश नीति का निर्धारण सेना ही करती रहेगी. – पाकिस्तान में नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन को नौ साल बाद एक बार फिर […]

।। पुष्पेश पंत ।।
(विदेश मामलों के जानकार)
– नवाज शरीफ को सेना के कारण ही अपनी सत्ता गंवानी पड़ी थी और अब वे नहीं चाहेंगे कि ताकतवर सेना को नाखुश किया जाये. वहां विदेश नीति का निर्धारण सेना ही करती रहेगी. –

पाकिस्तान में नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल-एन को नौ साल बाद एक बार फिर सत्ता हासिल होना अचंभित नहीं करता है. अगर वहां कि सत्ता पर इमरान खान काबिज होते, तो जरूर परिणामों को ऐतिहासिक कहा जा सकता था. लेकिन, इमरान खान फैक्टर उस तरह असर नहीं दिखा सका.

इसके बावजूद यह चुनाव इस मायने में जरूर ऐतिहासिक है कि पाकिस्तान के 66 साल के इतिहास में पहली बार एक लोकतांत्रिक सरकार से दूसरी लोकतांत्रिक सरकार को सत्ता हस्तांतरित हो रही है. चुनाव परिणामों से साफ जाहिर होता है कि पाकिस्तान की राजनीति में क्रिकेटर इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ को अवाम का भरोसा हासिल नहीं हो पाया है.

ऐसी पूरी उम्मीद थी कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की पार्टी पीपीपी इस बार सत्ता से काफी दूर रह जायेगी, लेकिन अधिकांश राजनीतिक विश्‍लेषकों को भरोसा था कि इमरान खान पाकिस्तान की राजनीति में बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभरेंगे. इसका एक बड़ा कारण इस बार वहां हुआ रिकार्ड मतदान भी था और युवा वोटरों का झुकाव इमरान की ओर साफ तौर पर देखा जा रहा था. लेकिन बढ़े हुए मतदान प्रतिशत का लाभ इमरान खान को नहीं मिला.

उन्होंने भले ही सत्ताधारी दल पीपीपी को तीसरे स्थान पर धकेल दिया है, लेकिन चुनाव परिणामों से साफ जाहिर होता है कि इमरान खान कट्टरपंथियों और सेना के समर्थन के बावजूद अवाम में नये पाकिस्तान के निर्माण का भरोसा जगाने में नाकाम रहे. इमरान की पार्टी को तालिबान के गढ़ खैबर पख्तूनख्वा में अच्छी सफलता मिली है.

चुनाव प्रचार के दौरान इमरान खान लगातार अमेरिकी ड्रोन हमले रोकने की बात कहते रहे. ऐसा लगता है कि चुनाव के कुछ दिन पूर्व घायल होने के कारण उन्हें सहानुभूति मिली और इसका थोड़ा सा लाभ उन्हें मिला. इमरान की पार्टी को इससे सुनहरा अवसर अब शायद ही फिर मिल सके.

चुनाव परिणामों का विश्‍लेषण करने से पता चलता है कि नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं. जरदारी के नेतृत्ववाली पीपीपी सरकार सभी अहम मोरचे पर विफल रही थी. पाकिस्तान में आज क्षेत्रीय असंतुलन काफी बढ़ गया है. आर्थिक हालात अच्छे नहीं हैं. बिजली संकट के अलावा बेरोजगारी और आतंकवाद के कारण पाकिस्तान आंतरिक तौर पर काफी कमजोर हो चुका है.

पीपीपी के पास इन समस्याओं का हल करने के लिए कोई नीति नहीं थी. ध्यान रखना चाहिए कि नवाज शरीफ भले सरकार की नाकामियों को निशाना बनाते रहे, लेकिन उनके पास भी इनके समाधान की कोई ठोस और कारगर नीति नहीं है. शरीफ को पूरे देश का समर्थन नहीं मिला है. उनकी जीत पंजाब की बदौलत आयी है, जो वहां की राजनीति में पंजाब के वर्चस्व को पुख्ता करती है.

भारत के लिए इन नतीजों से ज्यादा कुछ बदलनेवाला नहीं है. वहां नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बनें या कोई और, भारत के साथ संबंधों पर खास असर नहीं पड़ने वाला है. पाकिस्तान के चुनाव परिणाम आंतरिक मुद्दों से निर्धारित होते हैं. पाकिस्तान में कट्टरपंथी ताकतें काफी हावी हो गयी हैं और लगभग सभी संस्थाओं में उनकी भूमिका प्रभावी हो गयी है, जो भारत के साथ रिश्ते की बेहतरी की राह में बड़ा रोड़ा हैं.

लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी पीपीपी सरकार के दौरान भी भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में कोई बदलाव नहीं आया. ऐसे में नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री बनने के बाद संबंधों में सुधार की उम्मीद बेमानी है. यह भी याद रखना चाहिए कि नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री रहते हुए ही भारत को कारगिल युद्ध का सामना करना पड़ा था.

भले ही जरदारी की तुलना में नवाज शरीफ कम भ्रष्ट हों, लेकिन वे पाकिस्तान के संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखते हैं. यह मान लेना कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद पाकिस्तानी फौज और खुफिया एजेंसी आइएसआइ सरकार के इशारे पर काम करेगी मूर्खता होगी.

विदेश नीति, खास कर भारत से संबंधों का निर्धारण पाक सेना के इशारे पर ही होगा. तीनों प्रमुख पार्टियों ने चुनाव के दौरान भारत से रिश्ते बेहतर करने की बात पर जोर दिया था, लेकिन इसी आधार पर रिश्तों के बेहतर होने की उम्मीद पालना भूल होगी. आनेवाले समय में भारत को पाकिस्तान की ओर से बड़ी मुश्किलों का सामना करना होगा. अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी के बाद वहां की कट्टरपंथी ताकतों का रुख भारत की ओर होगा.

मौजूदा समय में पाकिस्तानी सेना में कट्टरपंथी ताकतों का प्रभाव काफी है. जनरल जिआ-उल-हक के दौरान पाकिस्तान का जो इसलामीकरण हुआ, उसका खामियाजा आज उसे खुद उठाना पड़ रहा है. पाकिस्तानी सेना भारत के साथ दोस्ताना संबंध नहीं चाहती. ऐसे में सेना की अनदेखी कर शरीफ भारत के साथ संबंधों को कितना बेहतर कर पायेंगे, यह सभी जानते हैं.

नवाज शरीफ को सेना के कारण ही अपनी सत्ता गंवानी पड़ी थी और अब वे नहीं चाहेंगे कि ताकतवर सेना को नाखुश किया जाये. वहां सत्ता भले ही किसी के पास हो, विदेश नीति का निर्धारण सेना ही करती रहेगी. तीनों प्रमुख दलों ने चुनाव प्रचार के दौरान तालिबान की खुल कर मुखालफत नहीं की. अंदरखाने सभी तालिबान का समर्थन हासिल करने की जुगत में लगे रहे. वहां के समाज में कट्टरपंथी और दकियानूसी सोच हावी हो गया है. ये परिणाम किसी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के आधार पर नहीं आये हैं. यानी भारत-पाक रिश्तों में ज्यादा कुछ बदलनेवाला नहीं है.

आज पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति काफी खराब है. आंतरिक तौर पर भी पाकिस्तान काफी कमजोर हो चुका है. कबीलाई बहुल इलाकों में केंद्रीय शासन का प्रभाव खत्म हो चुका है. वहां तालिबान की हुकूमत चलती है. वहां के राजनीतिक दल पाकिस्तानी जमीन पर भारत के खिलाफ किसी प्रकार की आतंकी गतिविधि को बढ़ावा नहीं देने की बात करते हैं. लेकिन हकीकत में इसे रोकना मुश्किल है, क्योंकि वहां का राजनीतिक नेतृत्व सेना को साथ लिये बगैर बड़े फैसले करने की हिम्मत नहीं जुटा सकता है.

पिछली पीपीपी सरकार के दौरान भी सेना परोक्ष तौर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करती रही. मौजूदा समय में सेना सीधे हस्तक्षेप करने की बजाय न्यायपालिका का प्रयोग अपने हितों के लिए कर रही है. भले ही पाकिस्तान के लिए ये चुनाव ऐतिहासिक हों, लेकिन इसे वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करनेवाला मानना भूल होगी.

चुनाव नतीजों से साफ जाहिर होता है कि पाकिस्तान की राजनीति में अभी भी सामंती ताकतें हावी है. नवाज शरीफ के सामने दोहरी चुनौती है. आंतरिक समस्याओं को हल करने के साथ ही सेना और न्यायपालिका के बढ़ते प्रभाव का सामना करने की. देखना होगा कि इन चुनौतियों का सामना नवाज शरीफ किस तरह कर पाते हैं.

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