।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
‘व्यक्तिगत रूप से ईमानदार’ प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के दो मंत्रियों-अश्विनी कुमार व पवन बंसल की छुट्टी भी भ्रष्टाचारपीड़ित देशवासियों के लिए आश्वस्तिकारी संकेत नहीं है. इस तरह की उम्मीद भी नहीं कि यह छुट्टी भ्रष्टाचार से छुटकारे की दिशा में ले जायेगी. ऐसी उम्मीद तो तब होती, जब छुट्टी पानेवाले मंत्रियों के खिलाफ कानून सचमुच अपना काम कर पाता और उन्हें उनके किये की सजा मिलती.
दुर्भाग्य से इस्तीफे मंत्रियों के पास अंतरात्मा जैसी किसी चीज के होने की पुष्टि भी नहीं करते. क्योंकि वे भारी जगहंसाई के बाद बचाव की सारी कवायदों व कलाबाजियों के विफल हो जाने पर ‘जो हुक्म सरकार’ की शैली में दिये गये. जैसे सीबीआइ राजनीतिक आकाओं के आदेश पर उन्हें कोयला घोटाले की स्थिति रिपोर्ट दिखाती और उनके मनमुताबिक बना देती है. इनमें कहीं से भी इस्तीफे देने या लेने वालों का नैतिक पक्ष नजर नहीं आता. उलटे वे कई असुविधाजनक नैतिक प्रश्नों के सामने जा खड़े होते हैं.
इस्तीफों के बाद प्रधानमंत्री की हालत दायें बंसल, बायें अश्विनी, आगे सोनिया और पीछे विपक्ष जैसी हो गयी है. मंत्रिमंडल में उनके सबसे प्रिय माने जाने वाले पवन बंसल ने मंत्रियों के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार को बेपर्दा कर डाला है तो ‘सबसे नजदीक’ अश्विनी कुमार ने सरकार की नीति व व्यवस्था के लज्जवसन उतार लिये हैं! मतलब? सरकार न तो नियुक्तियों-तबादलों जैसे रोजमर्रा के कामकाज को पाक-साफ रख पा रही है और न नीतिगत असहायताओं से लड़ पा रही है.
कई बार तो वह खुद अपनी विडंबनाएं गढ़ती लगती है. तभी तो पवन बंसल के प्रसंग में सीबीआइ की कार्रवाई का खामियाजा भुगतती है, तो अश्विनी कुमार के मामले में उसे पिंजरे का तोता बनाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की फटकार भी सुनती है!
विपक्ष पूछ रहा है कि अश्विनी कुमार गये तो जिन प्रधानमंत्री को बचाने के लिए उन्होंने सीबीआइ की रिपोर्ट बदलवायी, वे अपने पद पर क्यों हैं? उधर सत्तापक्ष कह रहा है कि मंत्रियों के इस्तीफे उन्होंने अपनी मर्जी से नहीं सोनिया के दबाव में लिये. यह स्थिति भी अभूतपूर्व ही है कि दोनों पक्ष प्रधानमंत्री की स्थिति कमजोर करने को ‘एकजुट’ हो गये हैं.
विपक्ष की प्रधानमंत्री पर हमला कर उनकी कारगुजारियों से फायदा उठाने की कोशिशें तो स्वाभाविक हैं, लेकिन सत्तापक्ष जैसे अस्वाभाविक ढंग से उनके अश्विनी व बंसल के प्रति पक्षपाती होने का प्रचार कर रहा है, उसका निहितार्थ यही है कि वह उन्हें राहुल के राज्यारोहण में बाधा बन सकनेवाली कार्यो की इजाजत हरगिज नहीं देगा और अगर जरूरी हुआ तो केंद्र का येदियुरप्पा बना कर विदा करने से भी परहेज नहीं करेगा.
वैसे भी उन्हें अच्छे और तीसरी पारी से इनकार न करने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर विदा करके कांग्रेस इस प्रश्न का उत्तर कैसे देगी कि तब उनकी जगह राहुल को पदस्थापित करने की जरूरत क्या है? उसके लिए तो अच्छा ही है कि अब उनकी छवि कोयला घोटाले में खुद को बचाने की कोशिश करते रंगेहाथ पकड़ लिये गये मंत्री की बन गयी है.
व्यक्तिगत ईमानदारी के बावजूद देश के प्रधानमंत्री से राजनीतिक नैतिकता व शुचिता जैसे मानदंडों की अपेक्षा की जाती है, वे उनकी रक्षा में असफल सिद्घ हो चुके हैं और संप्रग या कांग्रेस के लिए ताकत के बजाय बोझ बन गये हैं. व्यक्ति के रूप में भी और बंटाधार कर रही दाग-दाग, व्यवस्था के जनक व संरक्षक के रूप में भी.
अभी किसी को मालूम नहीं कि कांग्रेस व संप्रग उनके बोझ से कब और कैसे छुटकारा पायेंगे? लेकिन इस सिलसिले में एक तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती. यह कि डॉ मनमोहन सिंह के दोनों कार्यकाल में जितने भी भ्रष्टाचार आविष्कृत और उजागर हुए हैं, उनमें से अधिकांश की लाभार्थी उनकी उदारीकरण की नीतियों के सहारे फूली-फली बड़ी या बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं और मनमोहन ने उन्हें इस सीमा तक अभय किये रखा है कि किसी भी मामले में अदालतों द्वारा विवश कर दिये जाने पर ही कार्रवाई की है. अपनी ओर से उन्होंने कभी कोई पहल नहीं की.
देश में उदारीकरण की शक्तियों को पता है कि उनके विदा होने से वे अपना सबसे बड़ा पैरोकार गंवा देंगी. तब देश की दुर्दशा का कारण बन गयी आर्थिक नीतियों को बदलने की मांगें भी तेज होंगी. ऐसा कोई भी बदलाव इन शक्तियों को रास नहीं आनेवाला. इसलिए संभव है कि आगे देश इनकी ओर से मनमोहन सिंह के पक्ष में शुरू की गयी कोई प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न मुहिम भी झेले.