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संकट को अवसर में बदलने की इच्छा
राजीव रंजन झा संपादक, शेयर मंथन इस सोमवार को अचानक भारतीय शेयर बाजार ऐसे गिरने लगा, मानो कोई आसमान से गिरा हो और अटकने के लिए खजूर का पेड़ भी न हो.बाजार बंद होने पर सेंसेक्स 1,625 अंक नीचे था, जो बंद भाव के आधार पर अंकों में इसकी सबसे बड़ी गिरावट थी.केवल एक दिन […]
राजीव रंजन झा
संपादक, शेयर मंथन
इस सोमवार को अचानक भारतीय शेयर बाजार ऐसे गिरने लगा, मानो कोई आसमान से गिरा हो और अटकने के लिए खजूर का पेड़ भी न हो.बाजार बंद होने पर सेंसेक्स 1,625 अंक नीचे था, जो बंद भाव के आधार पर अंकों में इसकी सबसे बड़ी गिरावट थी.केवल एक दिन में शेयर बाजार में निवेशकों के कुल सात लाख करोड़ रुपये डूब गये. इसी बीच रुपये में डॉलर के मुकाबले भारी कमजोरी रही और रुपया दो साल के सबसे निचले स्तर पर बंद हुआ. इन सबके पीछे मुख्य वजह है चीन के कारण पैदा हुई वैश्विक उथल-पुथल.
चीन की अर्थव्यवस्था में धीमेपन और वहां की मुद्रा युआन के अवमूल्यन ने वैश्विक स्तर पर जो उथल-पुथल मचा दी है, उसके कई पहलुओं की चर्चा मैंने जुलाई के अंत में लिखे अपने लेख में ही की थी.
उस लेख का एक मुख्य बिंदु यह था कि अगर चीन में धीमापन आने के समय ही भारत पूरी शक्ति लगा कर अपनी विकास दर को तेज करने में सफल हो जाये, तो हम इस चुनौती को बड़े अवसर में बदल सकते हैं. यह अच्छा संकेत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यही सोच चुनी है.
सोमवार 24 अगस्त को वैश्विक बाजारों में आयी उथल-पुथल की समीक्षा के लिए मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक में उन्होंने इसी बात पर जोर दिया. वित्त मंत्री ने एक संवाददाता सम्मेलन में बताया कि प्रधानमंत्री ऐसे कदम उठाना चाहते हैं, जिनसे इस वैश्विक संकट को भारत के लिए एक अवसर में बदला जाये.
हालांकि, वित्त मंत्री कह रहे हैं कि यह पूंजी बाजार का संकट है, वास्तविक अर्थव्यवस्था का संकट नहीं. यह बात पूरी तरह सत्य नहीं लगती और लोगों को सांत्वना देने के लिए तर्क मात्र जान पड़ती है.
यह केवल शेयर बाजार की गिरावट नहीं है, बल्कि तमाम देशों की मुद्राओं में भारी अवमूल्यन हुआ है. चीन की अर्थव्यवस्था की रफ्तार टूटी है और वहां मंदी की आशंका है.
चीन के शेयर बाजार में मची तबाही का अंदाजा इस बात से लग सकता है कि उसका प्रमुख सूचकांक शंघाई कंपोजिट 12 जून के उच्चतम स्तर 5,166 की तुलना में घट कर 25 अगस्त के कारोबार में 3,000 के नीचे आ चुका था.
यानी करीब ढाई महीने की अवधि में ही यह 42 प्रतिशत से ज्यादा गिर चुका है. चीन ने अपनी धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए अपनी मुद्रा युआन के अवमूल्यन की रणनीति अपनायी है. युआन की विनिमय दर पर चीन की सरकार का नियंत्रण है.
पीपल बैंक ऑफ चाइना हर सुबह डॉलर की तुलना में युआन के लिए एक संदर्भ दर तय करता है और विनिमय दर को उस संदर्भ दर के 2 प्रतिशत के दायरे में ऊपर-नीचे होने की अनुमति देता है. चीन ने 11 और 12 अगस्त को अपनी मुद्रा में तीन प्रतिशत का अवमूल्यन किया. पहले एक डॉलर की कीमत 6.2 युआन के आसपास स्थिर रखी गयी थी, जो अब 6.4 डॉलर के ऊपर जा चुकी है.
खबरों के मुताबिक, चीन की आर्थिक रिसर्च एजेंसियों ने इस साल के अंत तक 7 डॉलर और साल 2016 के अंत तक 8 डॉलर की विनिमय दर का अनुमान लगाना शुरू कर दिया है, जो लगभग 20 प्रतिशत तक का अवमूल्यन होगा.
हालांकि, इसे युआन की विनिमय दर के लिए चीन की सरकार का लक्ष्य नहीं माना जा सकता. मगर आम तौर पर बाजार की धारणा यह बनी है कि चीन अपनी मुद्रा का अवमूल्यन जारी रखेगा.
चीन के इस कदम से करंसी वार या मौद्रिक युद्ध जैसी हालत पैदा होने के आसार दिख रहे हैं और दुनिया भर के शेयर बाजार टूटने का इसे एक प्रमुख कारण माना जा रहा है.
पहले तो वैश्विक बाजारों ने चीन की उथल-पुथल को कुछ नजरअंदाज किया, मगर पिछले हफ्ते से भूचाल जैसी हालत नजर आ रही है. अमेरिकी शेयर बाजार का प्रमुख सूचकांक डॉव जोंस इंडस्ट्रियल एवरेज 18 अगस्त से 24 के दौरान 1,674 अंक या लगभग 10 प्रतिशत गिर चुका है.
इसमें से 1,477 अंक की गिरावट तो केवल पिछले तीन दिनों के दौरान आयी है. सोमवार के कारोबार में डॉव जोंस 1,000 अंक से ज्यादा की गिरावट दिखा रहा था. सोमवार को तमाम यूरोपीय और एशियाई शेयर बाजारों में चौतरफा ढंग से 4-5 प्रतिशत की गिरावट थी.
खुद चीन का शंघाई कंपोजिट सूचकांक 8.5 प्रतिशत गिरा. विश्लेषक अंदेशा जताने लगे हैं कि एक बार फिर से यह 2008 जैसे संकट की आहट तो नहीं! साल 2008 में संकट का केंद्र अमेरिका था और लेहमन ब्रदर्स के डूबने से उस संकट की शुरुआत हुई थी.
इस समय चीन की अर्थव्यवस्था में धीमापन मुख्य कारण है और उसकी मुद्रा युआन के बार-बार अवमूल्यन के साथ वहां का शेयर बाजार बुरी तरह टूटने से वैश्विक उथल-पुथल शुरू हुई है.
इस वैश्विक उथल-पुथल में भारत के लिए चिंता के पहलू भी हैं और नये अवसरों के स्नेत भी हैं. अब देखना यह है कि इस अवसर को झपट लेने के लिए सरकार किस तरह के कदम उठाती है.
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में भारी गिरावट आ चुकी है और एक बैरल की कीमत फिर से 40 डॉलर के आसपास आ गयी है. पिछले कुछ महीनों में ही 60 डॉलर से ऊपर के भावों की तुलना में यह भारत के लिए काफी बड़ी राहत है.
तमाम औद्योगिक धातुओं में काफी पहले से मंदी की हालत है. तेल से लेकर धातुओं तक 22 कमोडिटी को शामिल करनेवाला ब्लूमबर्ग कमोडिटी सूचकांक 1999 के बाद से अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गया है.
बेशक, कमोडिटी भावों में गिरावट से मिलनेवाला फायदा रुपये की कमजोरी से कुछ कम हो जा रहा है. लेकिन कमोडिटी भावों में आयी गिरावट रुपये में आयी कमजोरी से काफी ज्यादा है. इसलिए भारत को शुद्ध रूप से फायदा मिल ही रहा है.
जब चीन के कदमों से मौद्रिक युद्ध जैसी हालत हो और तमाम देश जानबूझ कर अपनी मुद्रा का मूल्य घटने दे रहे हों, वैसे में भारत रुपये की कीमत को जबरन थामने की कोशिश नहीं कर सकता. ऐसा करने से विश्व-व्यापार में नुकसान ही होगा.
कुछ लोग 56 इंच के सीने और रुपये की कमजोरी पर विपक्षी नेता के रूप में मोदी के बयानों की याद दिला कर चुटकुले गढ़ने में लगे हैं.
लेकिन यह भारत में अच्छे दिन पर चुटकुले सुनाने का सवाल नहीं है. पूरी दुनिया में एक आर्थिक भूचाल आया हुआ है और भारत उसके असर से बचा नहीं रह सकता. वैश्विक मांग में भारी कमी आने की आशंका है, जिससे भारत में भी आर्थिक विकास के संभलने की प्रक्रिया रुक या टल सकती है.
जल्दी से तेज विकास के पथ पर लौटने की भारत की इच्छा को इससे झटका लग सकता है. अभी असली मुद्दा यह है कि मोदी सरकार के पास इस वैश्विक संकट को अवसर में बदलने की केवल इच्छा है, या इसके लिए कोई ठोस कार्यक्रम भी है?
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