सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
आज से दस-बीस साल पहले किसी भले आदमी को मुंह से धुआंधार गाली उगलते देख मन में उसके प्रति ईष्र्या, सराहना और अफसोस का कुछ ऐसा मिलाजुला भाव उठता था कि अहा, इस प्रतिभावान व्यक्ति को तो पुलिस में होना चाहिए था!
मैं खुद ऐसे कई लोगों को पकड़ कर पुलिस विभाग में ले गया था, कि भाई, आप इसे अपने यहां भरती कर इसका देशहित में सदुपयोग करें. जैसे सनी लियोनी को पोर्न फिल्मों में अपनी प्रतिभा, हालांकि कुछ लोग उसे कुछ और नाम देते हैं, खराब करते देख हमारे गुणग्राहक फिल्मकार उसे बॉलीवुड में ले आये. इससे उसकी प्रतिभा का तो सदुपयोग हो गया, लेकिन भले घरों की दूसरी प्रतिभाएं नष्ट होने लगीं, जो एक गौण बात है.
तभी यह भी पता लगा कि महाजनो येन गत: स ही पंथा: नहीं होता, महाजनानी येन गत: स भी पंथा: होता है, क्योंकि एक सर्वेक्षण में यह देखने में आया कि फिल्मों में जाने का यह भी एक रास्ता देख कई भारतीय घरों की मासूम लड़कियां पोर्न फिल्मों के दुश्चक्र में पड़ गयीं.
किसी गाली-प्रवीण पुरुषोत्तम को धुआंधार गालियां बकते देख उससे ईष्र्या अब भी होती है, मन में उसके प्रति सराहना अभी भी उमड़ती है, ‘गुंचे तेरी जिंदगी पै दिल हिलता है’ के-से अंदाज में उसकी हालत पर अफसोस अब भी होता है, पर अब उसे देख कर मन में यह भाव नहीं उठता कि इसे पुलिस में होना चाहिए था, बल्कि उसके प्रति यह भाव उठता है कि अरे, इसे तो लेखक होना चाहिए! क्योंकि अब गालियों की जितनी खपत लेखन में है,
उतनी अन्यत्र नहीं. पुलिसवाले तक अपने को अपडेट रखने के लिए अब लेखकों के पास आते हैं और बदले में उन्हें कृतज्ञतास्वरूप अपनी लूट-खसोट की अनमोल कमाई का हजार-पांच सौ थमा जाते हैं. पाठक भी इससे काफी संस्कारित हुए हैं और घर-परिवार में मां-बाप और भाई-बहनों तक के साथ निस्संकोच गालियों का आदान-प्रदान करते मिलते हैं.
घर में आयी नयी किताब कहां तक पढ़ ली, यह बताते हुए वे उसकी पृष्ठ-संख्या के बजाय गाली-संख्या उद्धृत करते हैं, और वह भी उन्हीं गालियों का प्रयोग करते हुए, जैसे कि बेटा बाप से कहता है- भैंचो पापा, मैं 122वीं गाली तक पढ़ गया हूं, आप? उत्तर में बाप उत्साहपूर्वक कहता है- माच्चो बेटे, मैं तो 175वीं गाली तक पहुंच चुका हूं! एक अद्भुत अपूर्व संस्कृति विकसित हो रही है, जो प्रधानमंत्री के भारत को विश्व की टक्कर में खड़े करने के विजन के सर्वथा अनुरूप है.
लेखन में गालियों के इस बढ़ते चलन से मुङो हाल ही में साहित्य के एक चलते पुरजे ने अवगत कराया. एक दिन वह मेरे घर आया और कभी मुझको, कभी मेरी किताबों को हिकारत से देखते हुए बोला- तू कैसा भी जोर लगा ले, कोई नहीं पूछेगा तुङो, जब तक कि तू अपनी रचनाओं में एक-दो पात्रों से दूसरे पात्रों की मां-बहन एक नहीं करायेगा. देखा जाये, तो सारी गालियों में औरतों की ही आरती उतारी जाती है.
फिर भी कुछ औरतें ऐसी किताबें पढ़ कर यह कहती हैं कि उन्हें तो इससे कुछ फर्क नहीं पड़ा. वैसे ही, जैसे उन्हें ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ को पढ़ते हुए कुछ फर्क नहीं पड़ता!