अलग राज्य बनते ही झारखंड में स्थानीय नीति बन जानी चाहिए थी, लेकिन पिछले 13 सालों में कई सरकारें बनीं पर किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और जिसने लिया भी उसे अपनी कुरसी तक गंवानी पड़ी. क्या इसी डर से कोई मुख्यमंत्री स्थानीयता के मुद्दे पर अपना हाथ नहीं डालना चाहता है? क्या वोट बैंक की राजनीति ने यहां के नेताओं को पूरी तरह से बांध दिया है?
कारण जो भी हो, लेकिन कुछ नेताओं का कुरसी का लालच झारखंड के मूलवासियों के लिए जहर साबित हो रहा है. राज्य सरकार की नौकरियों में (समान्य वर्ग के अंतर्गत) अधिकतर दूसरे राज्य के लोग बहाल हो रहे हैं. अगर इस मामले में आंकड़ा निकाल कर देखा जाये, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आयेंगे. जो भी हो, मीडिया को एक बार फिर स्थानीयता को लेकर जोरदार तरीके से सरकार पर दबाव बनाना चाहिए.
हरिश्चंद्र कुमार, डंडार कलां, पांकी