ऐसा लगता है कि समाज में महिला होना जुर्म तो है ही, गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्म लेना उससे भी बड़ा अभिशाप है. आज मैं जिस आयुवर्ग में पहुंच चुकी हूं, उसमें आगे चलकर दैनिक मजदूरी करना छोड़कर मेरे लिए रोजगार का अन्य कोई अवसर नहीं है, खासकर झारखंड में.
मेरा भी बचपन से सपना था कि कुछ बनूं, लेकिन नौकरी के लिए परीक्षा देने पर आरक्षण की वजह से मैं छंटती चली आयी. 2003 में पारा शिक्षक के रूप में चयनित हुई, लेकिन किस्मत ने दगा किया. तीन साल काम करने के बाद आरईओ के मौखिक आदेश पर मुझे बैठा दिया गया.
टेट की परीक्षा में बाइनरी कोड में रोल नंबर लिखने में गलती की वजह से 90 प्रतिशत अंक होने के बावजूद मेरा रिजल्ट रद्द हो गया, जिसके लिए मैंने जैक सचिव को आवेदन दिया, लेकिन कोई पहुंच या पैरवी के बगैर शायद वह भी कुछ नहीं सुनते.
सुनंदा महापात्र, घाटशिला