पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
दर्जनभर सरकारी नारों को लागू कैसे किया जाये, इसका कोई ब्लूप्रिंट अभी सामने नहीं आया है, लेकिन नारों के प्रचार का खर्चा सरकारी खजाने से खूब लुटाया जा रहा है. 2 अक्तूबर, 2014 के ‘स्वच्छ भारत’ के नारे पर 94 करोड़ खर्च हो चुके हैं.
न सरकार का कामकाज रुका है, न पार्टी का. प्रधानमंत्री अपने कार्यक्रम में व्यस्त हैं, तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पार्टी के विस्तार में लगे हैं. हालांकि, दोनों के ही नाक तले अपने-अपने वक्त के कद्दावर नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री सभी के दामन पर दाग लगने के आरोपों का सिलसिला सियासी तौर पर इतना तीखा है कि हर कोई यही सवाल कर रहा है कि आखिर प्रधानमंत्री खामोश क्यों हैं और बीजेपी अध्यक्ष तीन-तीन राज्यों के सीएम पर कुछ बोलने से बच क्यों रहे हैं.
इस बीच आर्थिक नीतियों से लेकर पाकिस्तान के साथ रिश्तों तक को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह ट्रैक बदला है और बदले हुए ट्रैक को सही बताने की कोशिश बीजेपी अध्यक्ष कर रहे हैं, वह अपने आप में खासा दिलचस्प है. आम चुनाव जीतने के लिए जिन हालात को प्रधानमंत्री मोदी ने भावनात्मक तौर पर खड़ा किया और सरकार चलाने के लिए वह जिस पटरी पर देश को दौड़ाना चाह रहे हैं, उसमें बड़ा अंतर है.
सवाल कई हैं. क्या प्रधानमंत्री मोदी अपनी ही पार्टी-सरकार के भीतर अपने विरोधियों को निपटाने में लगे हैं? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच को नीतिगत तौर पर शामिल करना हित में नहीं है? क्या पाकिस्तान को लेकर कट्टर रुख को बदलने की जरूरत आ चुकी है? यह बदलाव कैसे आ रहा है और बदलाव के लिए अमित शाह कैसे ‘शॉक ऑब्जर्वर’ की तरह काम कर रहे हैं, यह बहुत दिलचस्प है.
राजस्थान की सीएम वसुंधरा ‘ललितगेट’ में फंसीं. मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान व्यापमं घोटाले में फंसे. छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह धान घोटाले में फंसे. महाराष्ट्र के सीएम विमान रुकवाने से लेकर अपने दो मंत्रियों को क्लीन चीट देने में फंसे.
सुषमा स्वराज के दामन पर ललित मोदी को मदद के लिए अपने पद का उपयोग करने का दाग पड़ा, तो मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी की अपनी पढ़ाई के दो हलफनामे को लेकर सवाल उठे. और बेहद बारीकी से प्रधानमंत्री मोदी न सिर्फ खामोश रहे, बल्कि अपने एजेंडे वाले मुद्दों पर खूब बोलते रहे, जबकि अपने नेताओ के कठघरे में खड़ा होने पर कुछ नहीं बोले.
तो सवाल मोदी के बदले उन नेताओं को लेकर उठे, जो अपने-अपने घेरे में खासे ताकतवर थे. तो क्या पहली बार अपने-अपने दौर के कद्दावर इतने कमजोर हो चुके हैं कि उनकी कुर्सी हाईकमान के इशारे पर जा टिकी है? क्या प्रधानमंत्री की खामोशी ही इन कद्दावरों को कमजोर कर मोदी को ताकत दे रही है? बीजेपी के भीतर के सियासी समीकरण को समङों, तो जो भी कद्दावर दागदार लग रहे है, कमजोर हो रहे हैं, वे हमेशा आडवाणी कैंप के माने जाते रहे हैं. मोदी के पक्ष में खुल कर तो कभी नहीं रहे.
अपनी पहचान को ही अपनी ताकत बनाये रहे. यानी झटके में प्रधानमंत्री मोदी सरकार चलाते हुए कुछ उसी तरह पाक-साफ दिखायी दे रहे हैं, जैसे यूपीए के दौर में मनमोहन सिंह की छवि साफ दिखायी देती थी और उनके अपने मंत्री घोटालों में फंसते नजर आते थे. शायद इसीलिए यह सवाल अब भी अनसुलझा है कि बीजेपी शासित राज्यों के सीएम से लेकर केंद्रीय मंत्री तक जिस तरह आरोपों से घिर रहे हैं, उसका असर केंद्र सरकार या पार्टी पर क्यों नहीं है?
हालांकि इससे मोदी का कद बढ़ गया, यह भी पूरी तरह सही नहीं है. जो जनता सिर्फ मोदी को ही बीजेपी और सरकार माने हुए है, उसके लिए तो ‘अच्छे दिन’ के नारे अब कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं. और इसका असर बीजेपी कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा है, उनमें भी निराशा है. यहीं पर बीजेपी अध्यक्ष की भूमिका बड़ी हो जाती है और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह इस सच को समझ रहे हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त के उत्साह और जुलाई, 2015 के बीच खासा अंतर आ चुका है. अब अमित शाह उस लकीर को नये तरीके से खींचना चाह रहे हैं, जिसे नरेंद्र मोदी ने पांच बरस के लिए खींचा था.
उनका कहना है कि मोदी के वादे पांच बरस में पूरे नहीं हो सकते, ज्यादा वक्त चाहिए. यानी बीजेपी अध्यक्ष वादों से नहीं मुकर रहे हैं, बल्कि वादों की मियाद से मुकर रहे हैं. और इसकी सबसे बड़ी वजह कार्यकर्ताओं के भीतर उम्मीद जगाये रखना है. क्योंकि कार्यकर्ताओं के भरोसे ही बिहार से लेकर यूपी तक के चुनावों में कूदा जा सकता है. यानी अभी से चुनाव की तैयारी भी है और बाकी चार बरस के दौरान जिन आधे दर्जन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उसके लिए जमीन तैयार करने की मशक्कत भी हो रही है.
मई 2014 में सत्ता के लिए साठ महीने यह कह कर मांगे गये थे कि हर राज्य में एम्स होगा, हर व्यक्ति के पास पक्का मकान होगा, हर गांव में पाइप से पानी पहुंचेगा, हर गांव इंटरनेट से जोड़ा जायेगा, बुलेट ट्रेन शुरू की जायेगी, काला धन पैदा नहीं होने देंगे, खाद्य सुरक्षा दी जायेगी..
यानी वादों के अंबार तले वोटरों ने दिल खोल कर मोदी का साथ दिया और मोदी ने भी जो अलख जगाये, उसने संघ परिवार की जमीन पर खड़े होकर भावनाओं को उभारा. लेकिन, नीतियों में तब्दील होते मोदी के वादों ने स्वदेसी जागरण मंच को झटका दिया, भारतीय मजदूर संघ को हलाल किया, किसान संघ को बाजार का रास्ता दिखा दिया, आदिवासी कल्याण आश्रम को विदेशी निवेश से विकास की लौ जगाने के सपने दिखा दिये और बेहद बारीकी से संघ के ‘अखंड भारत’ या पीओके को कब्जे में लेने या बड़बोलेपन की हवा भी पाकिस्तान के साथ समझौतों को हवा देकर निकाल दी. इतना ही नहीं, पाकिस्तान जाने का न्योता उन हालात के बीच स्वीकारा, जिनके बीच 15 बरस पहले अटल बिहारी वाजपेयी बस लेकर लाहौर पहुंच गये थे.
क्या नरेंद्र मोदी 13 महीनों में उस मोड़ पर आ खड़े हुए हैं, जहां से उन्हें परंपरा निभाते हुए पांच बरस काटने हैं, या फिर वे मई 2014 से पहले के हालात को सरकार चलाते हुए नये तरीके से देश के सामने रखना चाह रहे हैं? दर्जनभर सरकारी नारों को लागू कैसे किया जाये, इसका कोई ब्लूप्रिंट अभी सामने नहीं आया है, लेकिन नारों के प्रचार का खर्चा सरकारी खजाने से खूब लुटाया जा रहा है. 2 अक्तूबर, 2014 के ‘स्वच्छ भारत’ के नारे पर 94 करोड़ खर्च हो चुके हैं. ‘स्किल इंडिया’ के नारे के दौर में ही दो लाख बुनकरों से लेकर कुटीर उद्योग की कमाई तीस फीसदी से ज्यादा सिमटती दिख रही है.
‘डिजिटल इंडिया’ के नारे के वक्त ही फोन कॉल ड्रॉप तक को रोकना मुश्किल हो रहा है. आलम इस हद तक बिखरा है कि मुंबई हमले के आरोपी को लेकर 10 दिन पहले विदेश मंत्री जो कहती हैं, उसके उलट प्रधानमंत्री पाकिस्तान से बात करते हैं. बॉर्डर पर पाक फायरिंग में जवान शहीद होता है और चंद घंटों बाद प्रधानमंत्री पाकिस्तान जाने का निमंत्रण स्वीकारते हैं!