कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी ही पार्टी के नेतृत्ववाली सरकार के एक विवादास्पद फैसले के खिलाफ मुंह खोलने के लिए जिस समय का चुनाव किया, उसने राजनीतिक बिरादरी और मीडिया में एक बड़ी बहस को जन्म दे दिया. इस बहस को राहुल के विद्रोह के तरीके, उनके तेवर और इस्तेमाल की गयी भाषा के इर्द-गिर्द सीमित किया जा रहा है. इसमें दोराय नहीं कि प्रधानमंत्री के विदेश दौरे के बीच में सरकार के किसी फैसले को ‘बकवास’ करार देकर राहुल संसदीय मर्यादा की परिपाटी को तोड़ रहे थे.
लेकिन, यहीं यह सवाल भी पूछा जाना जरूरी है कि क्या बेहतर यह होता कि राजनीति और सत्ता को पतन की एक और सीढ़ी उतरने दिया जाता! सजायाफ्ता दागी माननीयों की संसद सदस्यता बनाये रखने का प्रावधान करनेवाले अध्यादेश के खिलाफ राहुल की ‘बगावत’ को ‘देर आयद, पर दुरुस्त आयद’ कहा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश लाने का सरकार का फैसला जाहिर तौर पर जनभावनाओं के खिलाफ था. यह राहुल के संज्ञान में भी था. जब संकेत आया कि राष्ट्रपति इस अध्यादेश को वापस लौटा सकते हैं और जनमत भी इस अध्यादेश के विपक्ष में जाता दिखा, तो सरकार के सामने बहुत ज्यादा विकल्प नहीं थे. इसके बावजूद केंद्र सरकार के मंत्री इस अध्यादेश की ‘जरूरत’ साबित करने पर तुले थे और बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस भी कर रहे थे.
ऐसे में कांग्रेस उपाध्यक्ष होने के नाते राहुल से क्या अपेक्षा की जानी चाहिए थी? यही न कि वे जनता की आवाज को सुनें और सरकार से इस अध्यादेश को वापस लेने का अनुरोध करें! राहुल गांधी ने देर से ही, और अपनी सरकार की नाराजगी की कीमत पर भी, यह फैसला लेकर एक तरह से साहस का काम किया है. मुमकिन है कि राहुल गांधी का ‘एंग्री यंगमैन’ का अवतार एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हो है, पर ऐसा कर वे कम- से-कम यह जताने में तो कामयाब रहे ही हैं कि वे जनभावना को भांप सकते हैं और उसके मुताबिक फैसलों पर पुनर्विचार कर सकते हैं. यह गलत को भी सही ठहराने पर तुली आज की राजनीति से तो जरूर बेहतर है. देखना दिलचस्प होगा कि अगले चुनावों में टिकट बंटवारे के वक्त भी राहुल का यह अवतार कायम रहता है या नहीं.