।। सुशांत सरीन ।।
(रक्षा मामलों के जानकार)
– आज पाकिस्तान में तीन ‘ए’ (अल्लाह, आर्मी और अमेरिका) की जगह चार ‘एम’ (मुंसिफ, मिलिटरी, मीडिया और मुजाहिदीन) हावी हो गया है. पाक में इनकी चलती रही है. –
पाकिस्तान में 11 मई को होने जा रहे आम चुनाव और उसके संभावित परिणाम को लेकर पाकिस्तान ही नहीं, दूसरे मुल्कों में भी उत्सुकता है. वहां की राजनीतिक फिजा में मौजूद सभी संभावनाओं पर गौर किया जा रहा है. चूंकि मुकाबला काफी नजदीकी होने की उम्मीद है, ऐसे में सवाल गंठबंधन सरकार को लेकर पूछे जा रहे हैं. वोट डाले जाने से पहले ही पार्टियों के बीच गंठबंधन को लेकर चरचा हो रही है.
2013 का आम चुनाव पाकिस्तान के लिए निर्माण या बिखराव वाला साबित होगा. पाकिस्तान का भविष्य, यहां तक कि उसकी मौजूदगी केवल इस बात पर निर्भर नहीं करेगी कि कौन सरकार बनाता है. ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि यह कैसे काम करती है. हालांकि संकेत अच्छे नहीं है. इस बात की संभावना अधिक है कि मौजूदा चुनाव के बाद पाकिस्तान में शासन करना और भी मुश्किल हो जायेगा.
चुनाव कोई भी जीते, पाकिस्तान के लिए आगे की राह अनिश्चित और चुनौती भरी होगी. चुनाव से पहले तक किसी दल के प्रति स्पष्ट झुकाव नहीं दिखा. वर्ष 1988 के बाद हुए चुनावों के बारे में राजनीतिक विश्लेषक कम से कम यह अनुमान तो लगाते ही रहे कि कौन सा दल चुनाव जीतेगा.
इस बार पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है, लेकिन एक व्यक्ति जो पाकिस्तान के चुनावी खेल को बदलने की चुनौती पेश कर रहा है, वह हैं तहरीक-ए-इंसाफ के मुखिया इमरान खान. अगर उनकी पार्टी 30-40 के आसापास सीटें जीतती है, तो इमरान खान फैक्टर बेकार हो जायेगा. लेकिन, अगर उनका असर सूनामी का रूप अख्तियार कर लेता है, तो उनकी पार्टी को 272 में से 100 या उससे अधिक सीटें हासिल हो सकती है. यहां एक बात और गौर करने लायक है.
अगर इमरान चुनाव को प्रभावित करने में सफल होते हैं, तो यह नवाज शरीफ की कीमत पर होगा. नवाज शरीफ और इमरान खान के बीच चुनावी नूराकुश्ती में आसिफ अली जरदारी की पीपीपी पर खास असर नहीं होगा. इसका एक साधारण कारण है कि इमरान की पार्टी की मौजूदगी केवल पंजाब और खैबर पख्तूनवाला प्रांत में ही है और इन दोनों प्रांतों में कुल 200 सीटें हैं. यही क्षेत्र नवाज शरीफ का भी गढ़ रहा है.
पीपीपी का प्रभाव मध्य और उत्तर पंजाब में है, जहां कुल 100 सीटें हैं. लेकिन उसे असली ताकत दक्षिण पंजाब से मिलती है, जहां 48 सीटें हैं. इस क्षेत्र में तीनों दलों के बीच मुकाबला है. सिंध में जहां पीपीपी कुल 61 सीटों में आधी सीटें जीतने की उम्मीद लगा रही है, वहां नवाज शरीफ और इमरान खान का सीमित प्रभाव है. बलूचिस्तान में 14 सीटें है और इसका अंतिम परिणाम पर खास असर नहीं पड़ता. लेकिन खैबर पख्तूनवाला और फाटा के 47 सीट काफी महत्वपूर्ण हैं.
यहां इमरान खान को फिर से उभर रहे मौलाना फजलुर रहमान को हराना होगा. साथ ही अवामी नेशनल पार्टी, पीपीपी और पीएमएल(नवाज) से सीटें भी छीननी होगी. यही वजह है कि सभी एक दूसरे के खिलाफ तीखे बयान दे रहे हैं.
प्रत्याशियों के चयन और क्षेत्रों के भूगोल पर नजर डालें, तो साफ जाहिर होता है कि इमरान खान के तहरीक-ए-इंसाफ के सबसे बड़े दल के तौर पर उभरने की संभावना कम है. लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का आकलन है कि अगर मतदान 60 फीसदी होता है, न कि औसत 45-50 फीसदी, तब इमरान खान की सूनामी में विपक्ष उड़ जायेगा. नहीं तो परिणाम परंपरागत तौर पर पहले जैसे होंगे.
हालांकि इमरान खान व्यापक असर डालते हुए तीसरी ताकत के तौर पर उभर सकते हैं. लेकिन परिणाम 2008 की तरह ही होंगे. केवल एक फर्क यह होगा कि पीपीपी की बजाय नवाज की पार्टी को 90-100 सीटें मिलगी और वह सबसे बड़ी पार्टी होगी. पीपीपी के 60-70 सीटों के साथ दूसरे नंबर की पार्टी के तौर पर उभरने की संभावना है.
तहरीक-ए-इंसाफ पीएमएल(क्यू) की जगह ले लेगी. फजलुर रहमान की पार्टी खैबर पख्तूनवाला में बेहतर प्रदर्शन करेगी और उसे दर्जन भर सीटें मिलेगी. एमक्यूएम को नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन शहरी सिंध में वह लगभग 15 सीटें जीत कर प्रमुख पार्टी होगी. बाकी बचे सीट छोटे और निर्दलीयों को मिलेंगे.
ऐसी भी संभावना है कि पीपीपी को करारी हार का सामना करना पड़े और वह 30-40 सीटों तक सिमट जाये. यह नुकसान न केवल खैबर पख्तूनवाला और पंजाब प्रांत में होगा, बल्कि अपने गढ़ सिंध में भी 10 पार्टियों के गंठबंधन के हाथों उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है.
पीपीपी के लिए यह राजनीतिक दुघर्टना होगी और इससे उबरना काफी मुश्किल होगा. पहले से भिन्न जब पीपीपी के पास जुल्फिकार अली भुट्टो और बेनजीर भुट्टो जैसा करिश्माई नेता था, आज ऐसा कोई नेता नहीं है. इसके अलावा पार्टी की खस्ताहालत को देखते हुए कई वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़ सकते है. चुनाव परिणाम के बाद अगर खंडित जनादेश आये, तो सरकार बनाना एक गंभीर मुद्दा बन जायेगा.
कोई भी गंठबंधन सरकार सहयोगी दलों के दबाव से मुक्त नहीं होगी. ऐसे में आर्थिक, सामरिक और विदेश नीति के मामले पर फैसला लेना और भी मुश्किल हो जायेगा. सत्ता की दौड़ में शामिल दलों के पास पाकिस्तान के जटिल मुद्दों को हल करने की कोई योजना नहीं है.
नीतिगत स्तर पर नवाज शरीफ और इमरान खान के पास नया कुछ नहीं है. सभी कह रहे हैं कि राजस्व, निवेश बढ़ना चाहिए. खर्च कम करने की जरूरत है. लेकिन, यह सब कैसे होगा, इसका जबाव किसी के पास नहीं है. इमरान खान अमेरिकी ड्रोन विमानों को मार गिराने का वादा कर रहे है. नवाज और इमरान तालिबान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई रोकने की बात कह रहे हैं. इससे लगता है कि इन लोगों ने इसके बारे में गहन विचार नहीं किया है. आज पाकिस्तान में तीन ‘ए’ (अल्लाह, आर्मी और अमेरिका) की जगह चार ‘एम’ (मुंसिफ, मिलिटरी, मीडिया और मुजाहिदीन) हावी हो गया है.
परंपरागत तौर पर पाकिस्तान में इनकी चलती रही है. जरदारी ने चार एम के दबाव का या तो समर्पण या तुष्टीकरण के जरिये प्रबंधन किया. कोई नहीं जानता कि नवाज शरीफ या इमरान खान में इसके प्रबंधन की क्षमता है? एक बात साफ है कि चुनाव के बाद भी पाकिस्तान अनिश्चितता के साये में ही रहेगा. हालांकि पहली चुनी हुई सरकार का हस्तांतरण पूरा होगा, लेकिन सतत लोकतंत्र के समक्ष असली चुनौती दूसरी चुनी हुई सरकार का गठन सही तरीके से करना है.
जब तक पाकिस्तान की अगली सरकार राजनीतिक स्थिरता नहीं लायेगी, उसका कार्यकाल पूरा करना मुश्किल होगा. इस बात की पूरी संभावना है कि संविधानेत्तर हस्तक्षेप से लोकतांत्रिक प्रक्रिया एक बार फिर पटरी से उतर जायेगी. इस बात से हैरान होने की जरूरत नहीं है. 11 मई नहीं बल्कि उसके बाद के दिन पाकिस्तान के भविष्य का निर्धारण करेंगे.