झारखंड सरकार ने स्कूलों में बंटनेवाले दोपहर के भोजन (मिड-डे मील) की योजना को अच्छे से लागू कराने के लिए एक प्राधिकरण बनाने का सही फैसला लिया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि स्कूलों में दोपहर का भोजन देने की योजना बहुत अच्छी साबित हुई है. इसके नतीजे अच्छे रहे हैं. झारखंड जैसे गरीब राज्य के लिए तो यह योजना बहुत कारगर साबित हुई है. स्कूलों में दोपहर का भोजन मिलने से छात्रों की उपस्थिति में इजाफा तो हुआ ही है, कुपोषण से भी लड़ने में मदद मिल रही है. फिर भी इस योजना को लेकर एक बड़े जनमानस में विरोध का भाव है, क्योंकि इसके क्रियान्वयन के लिए कोई सिस्टम ही नहीं बनाया गया.
शिक्षकों को चूल्हे-चौके में झोंक दिया गया. भोजन की गुणवत्ता से लेकर परोसने तक का काम उनके हाथों में सौंप दिया गया है, जो पहले से ही काम के बोझ के मारे थे. मिड-डे मील के लिए अलग से प्राधिकरण बनाये जाने से इस योजना को लागू करने में पेश आनेवाली दिक्कतों का समाधान भी होगा. अभी हालत यह है कि हर हफ्ते कहीं न कहीं से घटिया खाने से संबंधित खबर आती है. इससे यह लगता है कि स्कूलों में बहुत ही घटिया खाना परोसा जा रहा है. बिहार के छपरा जिले के एक गांव में स्कूल का खाना खाने के बाद 23 बच्चों की मौत के बाद से इस योजना को बंद करने की भी मुहिम चलायी जा रही है. इस योजना के सही तरीके से लागू करने के लिए डिब्बाबंद खाने की सप्लाई से लेकर पूरी व्यवस्था एनजीओ के हाथों में देने के प्रयोग भी हुए.
डिब्बाबंद खाने के प्रयोग को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था. एनजीओ के हाथों स्कूलो में मिड-डे मील सप्लाई के भी नतीजे अच्छे नहीं निकले हैं. ऐसे में प्राधिकरण के जरिये पूरे सिस्टम को रेगुलेट करने के बेहतर नतीजे निकल सकते हैं. इससे गुणवत्ता नियंत्रण से लेकर स्कूलों में खाद्यान्नों की आपूर्ति के काम की निगरानी करने और जवाबदेही तय करने में आसानी होगी. चूंकि यह पूरा मामला बहुत ही जिम्मेवारी वाला है. इस कारण प्राधिकरण में प्रोफेशनल्स के साथ सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे भी रखे जाने चाहिए. अगर इसके बदले राजनीतिक आधार पर लोग रखे जायेंगे, जैसा व्यवहार में होता आया है, तो इस प्रकार के प्राधिकरण के गठन का कोई मतलब नहीं होगा.