।।चंदन श्रीवास्तव।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
अधिकतर लोग मानते हैं- दुनिया जैसी है, वैसी ही रहेगी. किसी बदलाव की उम्मीद और कोशिश बेकार है. ऐसे लोगों के पास बेहतर जीवन का न तो कोई सपना होता है और न ही आंखों के सामने हो रहे अन्याय को देखने-परखने की क्षमता. ऐसे लोग अपने लिए पहले से तय कोई भूमिका निभा कर संतुष्ट रहते हैं और खुद को सफल मानते हैं. दुनिया में ऐसे लोग ‘सयाने और समझदार’ कहलाते हैं.
कुछ लोग मानते हैं, दुनिया बेहतरी के लिए बदल सकती है. वे दुनिया को बदलने की कोशिश करते हैं या फिर ऐसी किसी कोशिश के हिस्सेदार बनते हैं. कोशिश सफल न हो, तो अपने बारे में यह मान कर संतोष करते हैं कि हमारी कोशिश से दुनिया भले न बदली हो, लेकिन हमारा प्रण टूटा नहीं. ऐसे लोगों के पास बेहतर जीवन का सपना और अन्याय को देखने की क्षमता तो होती है, लेकिन शायद उनकी कोशिशों में कमी होती है. साफ कहें, तो ऐसे लोग अन्याय को देखते तो हैं, लेकिन उसे परख नहीं पाते और इस वजह से दुनिया को बदलने के लिए जो औजार उठाते हैं, वे मौजूद समस्या की प्रकृति से मेल नहीं खाने के कारण भोथरे साबित होते हैं. दुनिया ऐसे लोगों को ‘आन का पक्का, ईमान का खरा मगर किस्मत का मारा’ कह कर याद करती है.
कुछ लोग विरले होते हैं, जिनके पास दुनिया को बेहतरी के लिए बदलने का सपना, अन्याय की पहचान-परख की पैनी नजर, उसे समाप्त करने के लिए कारगर समाधान तलाशने की चाह और अपने समाधान पर विश्वास खोये बगैर आखिरी दम तक चलने का संकल्प होता है. ऐसे लोग दुनिया बदलते हैं और वे दुनिया में ‘विजेता’ मान कर याद किये जाते हैं. विनोद रैना, ऐसे ही चंद लोगों में एक थे. इसलिए, बीते हफ्ते गुरुवार के दिन जब खबर मिली कि विनोद रैना नहीं रहे, तो अफसोस इस बात का कम था कि एक स्वप्नदर्शी शिक्षाविद् को नियति ने असमय दुनिया से उठा लिया, दुख इस बात का ज्यादा था कि जीवन के रंगमंच से विनोद रैना की विदाई एक ऐसे आंदोलनकारी की विदाई है, जिसने सिर्फ हंगामा खड़ा करने के मकसद से नहीं, बल्कि सूरत बदलने की मंशा से शिक्षा के अधिकार के आंदोलन में भाग लिया. उसको मूलगामी तौर पर बदला और मंजिल तक पहुंचाया. यह उनके स्वप्न, संकल्प और प्रयास के विजय का ही साक्ष्य है कि वे शिक्षा अधिकार को मूलभूत अधिकारों की सूची में अपनी लिखाई में दर्ज करवाने में सफल हुए.
यह एक असाधारण सफलता थी. उनके प्रयासों की असाधारणता इसमें नहीं कि उन्होंने अपने बाकी साथियों के साथ मिल कर शिक्षा को अधिकार का दर्जा दिलवाया, जबकि भारत की राज्यसत्ता इस अधिकार को अधर में लटकाये रखना चाहती थी. शिक्षा के अधिकार का कानून देश में राज्यसत्ता की नीयत में खोट के कारण देरी से लागू हुआ, क्योंकि उसने इसको स्वीकार करने के हर चरण में देरी की. राज्यसभा में मंजूरी के लिए शिक्षा का अधिकार संबंधी विधेयक दिसंबर, 2008 में पेश हो सका, यानी सबके लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के महात्मा गांधी के आह्वान के 71 साल बाद. 2008 तक इसको संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों वाले हिस्से में जगह बनाये हुए 58 साल, सुप्रीम कोर्ट से निर्देश आये 15 साल, संविधान के 86वें संशोधन को (जिसमें अनुच्छेद 21ए में 6 से 14 साल तक उम्र के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने को मूलभूत अधिकार के रूप में जोड़ने की बात थी) छह साल और शिक्षा का अधिकार कानून के अंतिम प्रारूप को बने चार साल बीत चुके थे. विनोद रैना के प्रयासों की असाधारणता शिक्षा के अधिकार को कानून के रूप में परिणत करने के लिए हुए संघर्ष को धार देने से ज्यादा उस कानून को अपने स्वप्नों के मुताबिक रचने में है.
शिक्षा का अधिकार कानून उनकी इस सोच का मूर्त रूप है कि हर बच्चा बुनियादी रूप से एक रचनाकार व्यक्तित्व होता है और शिक्षा की परख इस बात से की जानी चाहिए कि उसने बच्चे के रचनाशील मानस के विकास में कितना योगदान दिया! इस कानून ने अंगरेजी जमाने से चली आ रही शिक्षा की उस धारणा को बदला, जिसमें बच्चे से अपेक्षा रखी जाती थी कि वह सिर्फ रट्टा लगाये, और पाठ्य-पुस्तकों में लिखी हर बात को ब्रह्म-वाक्य माने. वह धारणा स्कूलों के बारे में मानती थी कि उन्हें सिपाहियों के ट्रेनिंग कैंप जैसा होना चाहिए, यानी प्रशिक्षण के रूटीन से जरा भी चूके, तो पीठ पर बेंत या फिर कानों में फटकार की कोई कर्कश आवाज गूंजी. इसके उलट इस कानून ने बच्चे के मन-मानस को केंद्र में रखा.
उसकी परिकल्पना एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में की, जो अपने आगे आयी सारी बातों पर सोचता और सवाल पूछता है. पढ़ाई की कल्पना एक दोस्ताना व्यवहार के रूप में की गयी, जिसमें शिक्षक किसी उपदेशक की तरह सत्य का आधिकारिक प्रवक्ता नहीं होता, बल्कि बच्चे के भीतर जन्मी जिज्ञासा के स्वभाव को पहचान कर उसका विस्तार करनेवाला होता है. इसी के अनुरूप पाठ्यपुस्तकों की कल्पना एक ऐसी पोथी के रूप में की गयी, जो बच्चों को खेल-खेल में जितना बताती हैं, उससे कहीं ज्यादा अपने बताये हुए पर सवाल करने के लिए उकसाती हैं. स्कूलों की कल्पना कुछ-कुछ इस तरह की गयी कि किसी बच्चे को वह दोस्ताना मिजाज वाले पड़ोसी का ड्राइंगरूम लगे, जहां बच्चा बाकी बच्चों के साथ भय-मुक्त होकर पूरे आत्मविश्वास के साथ समय गुजारे. यह कानून अपने स्वभाव में शिक्षा की चली आ रही धारणा में आमूल-चूल परिवर्तन करने के जज्बे से भरा था, जिसका सबसे ज्यादा श्रेय विनोद रैना को जाता है.
अपने संकल्प को सच करने के लिए उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसरी की नौकरी छोड़ी. संकल्प को परख और प्रयोग की जमीन देने के लिए मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में वैकल्पिक शिक्षा का प्रयोग शुरू किया (यह प्रयोग आज एकलव्य नाम से वटवृक्ष बन चुका है और इसने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या-2005 की अवधारणात्मक जमीन तैयार की है). वे देश भर में घूमे और इस मामले में सरकार की रहबरी की और अंतत: देश की शिक्षा नीति के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभानेवाले सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ एजुकेशन के सदस्य के तौर पर शिक्षा के अधिकार कानून को लागू होते देखा. भौतिकी का यह प्रोफेसर गांधी की कर्मठता और टैगोर की स्वप्नशीलता की साझी मिट्टी से बना था. उसके खाते में अनेक उपलब्धियां हैं, लेकिन सारी उपलब्धियों के ऊपर है यह सच कि शिक्षा की उसकी धारणा के आगे भारत सरकार ने सर नवाया.