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दिल्ली की अस्पष्ट प्रशासनिक रेखाएं

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार वास्तव में देश की राजधानी की व्यवस्था के बारे में हमें सोचना चाहिए. बेशक हमारी संघीय व्यवस्था है, इसमें सत्ता का विकेंद्रीकरण भी होना चाहिए. एक ही इलाके में दो तरह से सोचनेवाली सरकारें होंगी, तब क्या ऐसी ही स्थिति पैदा नहीं होगी? जिस बात का अंदेशा था वह सच होती […]

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
वास्तव में देश की राजधानी की व्यवस्था के बारे में हमें सोचना चाहिए. बेशक हमारी संघीय व्यवस्था है, इसमें सत्ता का विकेंद्रीकरण भी होना चाहिए. एक ही इलाके में दो तरह से सोचनेवाली सरकारें होंगी, तब क्या ऐसी ही स्थिति पैदा नहीं होगी?
जिस बात का अंदेशा था वह सच होती नजर आ रही है. दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच अधिकारों का विवाद संवैधानिक संकट के रूप में सामने आ रहा है. अंदेशा यह भी है कि यह लड़ाई राष्ट्रीय शक्ल ले सकती है. उप-राज्यपाल के साथ यदि केवल अहं की लड़ाई होती, तो उसे निपटा लिया जाता. विवाद के कारण ज्यादा गहराई में छिपे हैं. इसमें केंद्र सरकार को फौरन हस्तक्षेप करना चाहिए. दूसरी ओर इसे राजनीतिक रंग देना भी गलत है. रविवार की शाम तक कांग्रेस के नेता केजरीवाल पर आरोप लगा रहे थे.
टीवी चैनलों पर बैठे कांग्रेसी प्रतिनिधियों का रुख केजरीवाल सरकार के खिलाफ था. उसी शाम पार्टी के वरिष्ठ नेता अजय माकन ने इस संदर्भ में भाजपा पर आरोप लगा कर इसका रुख बदल दिया. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने केजरीवाल का समर्थन किया. लगता है कि संपूर्ण विपक्ष एक साथ आ रहा है.
अब जो प्रश्न उठे हैं, उनमें नौकरशाही के लिपटने से सारी बात का रुख बदल गया है. खुली बयानबाजी से मामला सबसे ज्यादा बिगड़ा है. अरविंद केजरीवाल को विवाद भाते हैं. सवाल यह भी है कि क्या वे अपने आप को प्रासंगिक बनाये रखने के लिए नये विवादों को जन्म दे रहे हैं? विवाद की आड़ में राजनीतिक गोलबंदी हो रही है. क्या यह बिहार चुनाव के दौरान होनेवाले विवाद की पूर्व-पीठिका है? विपक्षी एकता कायम करने का भी यह मौका है.
पर यह सवाल कम महत्वपूर्ण है कि राज्य सरकार को क्या अपने अफसरों की नियुक्तियों का अधिकार भी नहीं होना चाहिए? अगर चुनी हुई सरकार को अधिकार नहीं होगा, तो उसकी प्रशासनिक जवाबदेही कैसे तय होगी? मौजूदा विवाद पुलिस या जमीन से ताल्लुक नहीं रखता, जो विषय केंद्र के अधीन हैं.
वर्तमान विवाद की शुरुआत कार्यवाहक मुख्य सचिव की नियुक्ति को लेकर शुरू हुई थी. यह नियुक्ति वास्तव में अटपटे ढंग से हुई. सिद्धांतत: राज्य की कार्यपालिका एक है, दो नहीं. पर यह मतभेद का ट्रिगर प्वॉइंट था. इसके कारण कहीं और छिपे हैं. इससे पहले भी कई मुद्दों पर मुख्यमंत्री केजरीवाल और उप-राज्यपाल नजीब जंग के मतभेद जगजाहिर हो चुके हैं.
नजीब जंग दिल्ली सरकार की फाइलों को अपने पास मंगवाते हैं. इस पर केजरीवाल को आपत्ति है. बहरहाल नियुक्ति-विवाद को लेकर केजरीवाल ने राष्ट्रपति के पास जाने का फैसला किया. यह स्वाभाविक फोरम है, पर क्या वहां से समाधान निकलेगा? संवैधानिक सवालों का जवाब देश की सर्वोच्च अदालत ही दे सकती है. संवैधानिक व्याख्या का वही मंच है. संभव है यह मामला वहां भी जाये!
एक नजर में यह भी लगता है कि अंतत: यह केंद्र और राज्य के बीच का सवाल बनेगा. एलजी ने अपने कदमों के पक्ष में कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 239ए के तहत उन्हें कार्यवाहक मुख्य सचिव की नियुक्ति का पूरा अधिकार है. बेहतर होता कि अधिकारों का स्पष्टीकरण कोई संवैधानिक संस्था करे.
मसले का निपटारा सड़कों पर नहीं होना चाहिए. साथ ही प्रशासनिक कार्यो में बाधा नहीं पड़नी चाहिए. और नौकरशाही का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए. देखना होगा कि क्या दिल्ली में प्रशासनिक अधिकारों की सीमा रेखा अस्पष्ट है. या यह दिल्ली सरकार के तख्ता-पलट की कोशिश है, जैसा आरोप केजरीवाल लगा रहे हैं?
दुखद पहलू है कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच चिट्ठियों का आदान-प्रदान हो रहा है, जबकि वे आमने-सामने बात कर सकते हैं.
संविधान के अनुच्छेद 239क, 239कक तथा 239कख ऐसे प्रावधान हैं, जो दिल्ली और पुद्दुचेरी को राज्य का स्वरूप प्रदान करते हैं. इन प्रदेशों के लिए मुख्यमंत्री, मंत्रिमंडल तथा विधानसभा की व्यवस्था की है, लेकिन राज्यों के विपरीत इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं, जिसके लिए वे उप-राज्यपाल को सहायता और सलाह देते हैं.
ये राज्य भी हैं और कानूनन केंद्र शासित प्रदेश भी.
इसे संघवाद के मौलिक ढांचे के खिलाफ बताते हुए याचिका में दिल्ली और पुद्दुचेरी को राज्य सूची में रखे जाने का निवेदन किया गया था. दिल्ली केवल राज्य नहीं है, देश की राजधानी भी है. यहां दो सरकारें हैं. केंद्रीय प्रशासन राज्य व्यवस्था के अधीन रखना संभव नहीं. पूर्ण राज्य का दर्जा देने के पहले दिल्ली की व्यवस्था का विभाजन करना होगा.
अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी दिल्ली जैसा ही राजधानी-नगर है. यह संघ सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है, इसलिए इस पर नियंत्रण अमेरिकी संसद का है. वहां स्थानीय मेयर और नगरपालिका भी है.
भारत में दिल्ली को सुविधा के रूप में विधानसभा और लोकसभा में सात सांसदों का प्रतिनिधित्व प्राप्त है. अमेरिका में राजधानी बनाते समय संघ और राज्यों की सत्ता को ध्यान में रखा गया था कि देश की राजधानी किसी राज्य में होगी, तो सांविधानिक दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं. 1783 की पेंसिल्वेनिया बगावत ने भी इसकी जरूरत को साबित किया.
दिल्ली में 2013 में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद पुलिस व्यवस्था को लेकर केंद्र सरकार के साथ टकराव हुआ और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल धरने पर भी बैठे थे. उस घटना के बाद से यह मसला काफी संवेदनशील बन गया है. हमारे यहां संघीय राजधानी को लेकर बहुत विचार किया नहीं गया. राज्यों के पुनर्गठन के समय 1955 में इसे केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया गया. देखना यह है कि 1991 में जब 69वां संविधान संशोधन पास किया जा रहा था, तब इसे विशेष राज्य का दर्जा देने का विचार था या विशेष केंद्र शासित क्षेत्र बनाने का. उस बहस पर भी हमें ध्यान देना चाहिए.
यह बात तब भी कही गयी थी कि दिल्ली चूंकि राष्ट्रीय राजधानी है, इसलिए ऐसी व्यवस्था की कल्पना नहीं की जानी चाहिए, जिसमें टकराव की स्थिति बने. अधिकारों को लेकर संवैधानिक स्थिति पूरी तरह साफ नहीं है और काफी बातें व्याख्याओं पर निर्भर हैं. चूंकि दिल्ली और केंद्र में लंबे समय तक एक ही पार्टी की सरकार रही, इस कारण टकराव के मुद्दे उठ नहीं पाये.
वास्तव में देश की राजधानी की व्यवस्था के बारे में हमें सोचना चाहिए. बेशक हमारी संघीय व्यवस्था है, इसमें सत्ता का विकेंद्रीकरण भी होना चाहिए. पर एक ही इलाके में दो तरह से सोचनेवाली सरकारें होंगी, तब क्या ऐसी ही स्थिति पैदा नहीं होगी?
यह विवाद संवैधानिक अस्पष्टता की वजह से है और राजनीतिक दृष्टिकोण की वजह से भी. 1993 में जब यहां विधानसभा दोबारा बनी, तब तक देश में संघवाद की बहस शुरू हो चुकी थी. बेहतर होता कि उसी वक्त इसके बेहतर समाधान निकाले जाते.

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