अपने देश की अर्थव्यवस्था की विसंगति प्रकट करने के लिए एक जुमला खूब चलता है ‘अमीर देश की गरीब जनता’. लेकिन झारखंड में माननीय विधायकों के वेतन-भत्ते में इजाफे की रफ्तार और प्रति व्यक्ति आय के नजरिये से माननीयों के लिए ‘गरीब जनता के अमीर विधायक’ जुमले का इस्तेमाल किया जाये तो गलत नहीं.
यह जुमला संसाधन के दुरुपयोग से लेकर अर्थ के असमान वितरण के दर्द और सवाल को एक साथ प्रकट करता है. मंगलवार को चाईबासा में राज्य कैबिनेट की बैठक में इन माननीयों के वेतन-भत्ते में जबरदस्त उछाल लाते हुए इसे अब 1,20,000 रुपये प्रतिमाह कर दिया गया. विचित्र है कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से झारखंड के विधायकों का वेतन अधिक हो गया है, वहीं प्रति व्यक्ति आय वहां के मुकाबले चौथाई है.
प्रदेश में औद्योगिक रुग्णता और रोजगार के बुरे हालात को देखते हुए माननीयों से जिस पहल की अपेक्षा है, उसमें सदैव निराशा ही हाथ लगती रही. वर्ष 2001 का योजना आकार 2651 करोड़ रुपये से बढ़ कर अब 55492 करोड़ हो गया है, पर जमीन पर इसका प्रतिफल नहीं दिखता.
जहां के मंत्री-विधायकों पर आय से अधिक संपत्ति का मामला अदालत में सामान्य बात हो, जहां के मंत्रियों को पद पर रहते जेल की हवा खानी पड़ती हो, वहां विकास की चिंता करनेवाले कौन होंगे? हां, विकास देखना हो तो हॉर्स ट्रेडिंग से लेकर आय से अधिक संपत्ति के मामलों में उलङो मंत्रियों-विधायकों को देखा जा सकता है. जिस आदिवासी अस्मिता को लेकर यहां के आदिवासी नेता जमीन-आसमान एक करते हैं, उनके मुख्यमंत्री, मंत्री और विधायक रहते हुए आदिवासी समुदाय प्रदेश का सर्वाधिक अवांछित समुदाय हो गयी है.
आदिवासियों के लिए कानूनों की भरमार है, फिर भी वह विकास में नीचे ही जा रहा है. विकास दर का लक्ष्य हासिल करने में हांफते राज्य में कुल कृषि योग्य 29.74 लाख हेक्टेयर भूमि में सिर्फ चौथाई को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. इस सब स्थिति से उबरने के लिए बहुत बड़ी कसरत की जगह एक दृष्टि और संकल्प के साथ प्रतिबद्धता की जरूरत है. पर सारी दृष्टि, चिंता, सवाल, सपने निजी हितों में सिमट जायें तो हासिल इस दुर्दशा के अलावे और क्या हो सकता है.