समग्र विकास का बुनियादी सिद्धांत है कि जो विकास में पीछे छूट गये हैं, उन्हें अतिरिक्त सहायता दी जाये, ताकि वे भी कदम से कदम मिला कर चल सकें. लेकिन, इस इस सिद्धांत के फ्रेम में बिहार को सहायता के मामले को देखें, तो अलग तसवीर नजर आती है. पिछले तीन माह से बिहार को सहायता के नाम पर सिर्फ आश्वासन मिल रहे हैं. विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने का मामला ठंडा पड़ता जा रहा है. केंद्रीय बजट में आंध्र प्रदेश की तर्ज पर विशेष सहायता की घोषणा भी जमीन पर नहीं उतरी है.
ऊपर से 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में जिन कसौटियों के आधार पर राज्यों की हिस्सेदारी तय की गयी है, उससे बिहार को फायदा तो दूर, उल्टा नुकसान होगा. कहने को तो केंद्रीय करों में हिस्सेदारी 32 फीसदी से बढ़ा कर 42 फीसदी कर दी गयी है, लेकिन दूसरे मद में मिलने वाले केंद्रीय अनुदान का प्रावधान खत्म कर देने या कम कर देने से कुल सहायता में कमी आयेगी. केंद्रीय करों में 42 प्रतिशत का हिस्सा मिलता और योजना मद का पैसा अलग से मिलता तो इससे बिहार को फायदा होता. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली से मुलाकात कर बिहार को संभावित घाटे की जानकारी दी है. राज्य सरकार का आकलन है कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को अमल में लाये जाने पर बिहार को करीब 55 हजार करोड़ रुपये का घाटा होगा. बिहार के हित से जुड़े कई अन्य मामले भी केंद्र के पाले में हैं.
बिहार पुनर्गठन एक्ट, 2000 के तहत विशेष सहायता जारी रखने के बारे में भी केंद्र सरकार ने अब तक कुछ स्पष्ट नहीं किया है. झारखंड के अलग होने के बाद 10वीं पंचवर्षीय योजना के कार्यकाल से ही बिहार को विशेष सहायता मिलती रही है. इसके अलावा आंधी-तूफान और ओलावृष्टि से फसलों व फलों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए राज्य सरकार करीब दो हजार करोड़ रुपये की सहायता का ज्ञापन केंद्र को सौंप चुकी है. बिहार के विकास से सीधे तौर पर जुड़े इन मसलों पर फैसले में जितनी देर होगी, राज्य को उतना ही नुकसान उठाना होगा. बिहार की उपेक्षा और उसकी हकमारी का मुद्दा भी गरम होगा. बिहार के घाटे की भरपाई की अलग से व्यवस्था और विशेष सहायता की घोषणा को अमल में लाये जाने की जरूरत है.