रवीश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
मीडिया को जरूर अपने अंदर झांकना चाहिए. लेकिन, यह सवाल उठाने के लिए केजरीवाल के पास अनेक तरीके हैं. वे खत लिखने से लेकर अखबारों में लेख तक लिख सकते हैं. अपने खिलाफ उठते आरोपों से निपटने का काम पब्लिक को सौंप देने के विचार से सभी को सतर्क रहना चाहिए. मीडिया को लेकर नेताओं की सहनशीलता आये दिन कम होती जा रही है, जो लोकतंत्र और एक सभ्य समाज के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है.
‘तो यह समझ में आने लगा कि सीधे जनता को कानूनन यह ताकत देनी होगी कि यदि राशनवाला चोरी करे, तो शिकायत करने के बजाय सीधे जनता उसे दंडित कर सके. सीधे-सीधे जनता को व्यवस्था पर नियंत्रण देना होगा, जिसमें जनता निर्णय ले और नेता व अफसर उन निर्णयों का पालन करें.’
साल 2012 में अरविंद केजरीवाल ने अपनी किताब के पेज नंबर 30 पर यह सवाल उठाया है. वे पूछ रहे हैं कि जो जनता संसद और नौकरशाही को निर्णय लेने का अधिकार सौंप सकती है, वह यह अधिकार क्या उससे वापस नहीं ले सकती.
अरविंद लिखते हैं कि इन्हीं सब प्रश्नों की खोज में हम बहुत घूमे, बहुत लोगों से मिले और बहुत कुछ पढ़ा भी. जो कुछ समझ में आया, उसे इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं. ‘स्वराज’ में अरविंद इस नतीजे पर पहुंचते तो नहीं दिखाई दिये कि जनता सीधे दंडित करेगी, लेकिन लगता है उनके मन में यह प्रस्ताव अब भी किसी नयी किताब का इंतजार कर रहा है.
केजरीवाल कहते हैं- ‘अगर आप देखते हैं कि किसी चैनल ने कुछ गलत दिखाया है, जो कि तथ्यात्मक रूप से गलत था, तो उसको चैनल का नाम लेकर आप उठायेंगे. जैसे यह भाई साहब ने बहुत अच्छा सुझाव दिया कि एक पब्लिक ट्रायल भी शुरू किया जा सकता है.
दिल्ली के अंदर आप 8-10 जगह फिक्स कर दीजिए और वहां जनता को इकट्ठा कीजिए. और दिखाइए कि इस चैनल ने यह दिखाया था. यह झूठ है. इस तरह से जनता का ट्रायल शुरू किया जा सकता है.’
बीते रविवार को एक न्यूज वेबसाइट की लांचिंग के वक्त जब वहां मौजूद किसी व्यक्ति ने सुझाव दिया, तो मंच पर बैठे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इसे तुरंत लपक लिया कि ‘मीडिया का पब्लिक ट्रायल होना चाहिए’. आये दिन हमें ट्रेन से लेकर बस स्टॉप पर ऐसे बहुत से लोग मिलते रहते हैं, जो भारत की समस्याओं का निदान भीड़तंत्र और तानाशाही में बताने लगते हैं.
आप जानते ही हैं कि भीड़तंत्र में मारने का फैसला वहां लायी गयी जनता करती है, कानून नहीं. ऐसे लोगों को लगता है कि फलां नेता हिटलर हो जाता, तो सबको ठीक कर देता. ये वो लोग हैं, जो खुद बीमार होते हैं और दुनिया को दवाई बांटते रहते हैं.
एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के मन में इस ख्याल के प्रति सहमति बता रही है कि बहुत कुछ गड़बड़ है. इस तरह अरविंद केजरीवाल लोकतंत्र और संविधान के प्रति अपनी निष्ठा को ही संदिग्ध बना रहे हैं. ‘पब्लिक ट्रायल’ की हमारे कानून में कोई व्यवस्था नहीं है. इस तरह का काम सीधे-सीधे लोगों को उकसाने जैसा काम है.
केजरीवाल ने ‘पब्लिक ट्रायल’ के प्रस्ताव से सहमति जताने से पहले मीडिया के कुछ हिस्से की भूमिका के बारे में जो कहा, उससे कोई असहमति नहीं है. यह बात पाठकों को जानना चाहिए कि कुछ न्यूज चैनल आम आदमी पार्टी का बहिष्कार करते हैं. चुनावों के दौरान उनका कोई पक्ष नहीं रखा जाता था. उनकी तभी कवरेज होती है, जब किसी न्यूज में विवाद की संभावना होती है.
उन चैनलों की भाषा देखेंगे-सुनेंगे, तो निश्चित रूप से टारगेट किया जाता प्रतीत होगा. जैसे ठान लिया गया हो कि इस पार्टी को खत्म कर देना है. यही नहीं, मीडिया ट्रायल का यह काम तो अब एक और खतरनाक स्तर पर चला गया है. दो चैनलों की खुलेआम लड़ाई सार्वजनिक हो चुकी है. आये दिन इन चैनलों पर एक-दूसरे के प्रबंधन के खिलाफ ओछी बातें की जाती हैं. पर कमियां गिना कर जो सुझाव दिया जा रहा है, वह अपने आप में महामारी है.
अब ‘मीडिया ट्रायल’ का स्वरूप बदल गया है. तमाम दलों के आइटी सेल आये दिन किसी चैनल या पत्रकार का ट्रायल करते रहते हैं. इस खेल में वे अपने विरोधी नेताओं का भी ट्रायल चलाते हैं. अचानक से किसी बात पर सैंकड़ों ट्वीट का हमला हो जाता है. यह सब प्रायोजित और सुनियोजित तरीके से ही होता है. इस क्रम में अब सिर्फ मीडिया का ट्रायल नहीं होता है.
राजनीतिक दल मीडिया का ट्रायल करते-करवाते हैं, तो मीडिया भी राजनीतिक दलों का ट्रायल करता है. मीडिया में मीडिया का भी ट्रायल चलता रहता है और सोशल मीडिया में तो किसी का भी ट्रायल कभी भी लांच हो सकता है. यानी ‘पब्लिक ट्रायल’ के पहले से ही ‘पब्लिक ट्रायल’ चल रहा है, जिसमें कई पार्टियों के आइटी सेल और समर्थकों-कार्यकर्ताओं का समूह शामिल है.
बांग्लादेश में धार्मिक अंधभक्ति के खिलाफ अभियान चलानेवाले ब्लॉगर अविजित राय को सरेआम मार दिया गया. फ्रांस में शार्ली एब्दो पत्रिका के पत्रकारों को गोलियों से भून दिया गया. क्या हम जाने-अनजाने में ‘पब्लिक ट्रायल’ की बात कर ऐसी मानसिकता को ही बढ़ावा नहीं दे रहे हैं? आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता आशुतोष ने कहा है कि अदालतें फैसला देने में देरी करती हैं.
क्या इस आधार पर तमाम फैसले जनता अपने हाथों में ले और चौराहे पर बिना वकील और दलील के ही सजा सुना दे? सबको जल्दी न्याय का इंतजार है, लेकिन सिर्फ एक ही दल को इतनी बेसब्री क्यों? अदालत के ट्रायल में तो वकील, दलील, गवाह, सबूत सबको मौका मिलता है. ‘पब्लिक ट्रायल’ का आइडिया तो अदालत की संस्था को भी चुनौती देता नजर आता है.
क्या अरविंद केजरीवाल ‘पब्लिक ट्रायल’ का आइडिया सौंप कर उस पब्लिक को रोक पायेंगे कि फलां चैनल के अलावा किसी और का ट्रायल मत करना? तब क्या होगा जब कोई दूसरा दल किसी और चैनल की ‘सुपारी’ ले ले, जैसे कि केजरीवाल के मुताबिक कुछ चैनल कुछ दलों की ‘सुपारी’ लिये बैठे हैं. अब हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि आंतरिक नियंत्रण के नाम पर बनी मीडिया पंचायत भी बेअसर साबित हो रही है. पर यही काम तो सोशल मीडिया के आइटी सेल के जरिये भी हो रहा है.
यदि किसी को गठिया है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसे कैंसर का रोग पकड़ा दिया जाये ताकि कैंसर की पीड़ा के आगे गठिया का दर्द कम लगने लगेगा. तब क्या होगा जब नेताओं का पब्लिक ट्रायल होने लगेगा. हम कहां जा रहे हैं, इस बारे में हम सबको सोचना चाहिए.
मीडिया को जरूर अपने अंदर झांकना चाहिए. लेकिन, यह सवाल उठाने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री के पास अनेक अवसर और तरीके हैं. वे खत लिखने से लेकर अखबारों में लेख तक लिख सकते हैं.
उनके पास कुप्रचारों का मुकाबला करने के प्रचुर साधन मौजूद हैं, लेकिन अपने खिलाफ उठते आरोपों से निपटने का काम पब्लिक को सौंप देने के विचार से खुद उन्हें ही नहीं, बल्कि सभी को सतर्क रहना चाहिए.
मीडिया को लेकर नेताओं की सहनशीलता आये दिन कम होती जा रही है. इस पैमाने पर कोई नेता खरा नहीं उतरता है. सभी अपने तरीके से मीडिया को साधने के खेल में लगे रहते हैं. उनकी यही लत किन्हीं कमजोर क्षणों में ऐसे सुझावों की तरफ धकेल देती है, जो लोकतंत्र और एक सभ्य समाज के लिए बेहद खतरनाक हो सकता है.