प्रकृति हर उलट-फेर से पहले आगाह जरूर करती है, बस जरूरत है उसे समझने की. झारखंड के वर्तमान हालात संकेत दे रहे हैं कि यहां लोकतंत्र का महापर्व यानी चुनाव निकट है, जिसमें हम आमजन अपने मताधिकार का प्रयोग कर अपने माननीय जनप्रतिनिधियों को सत्तासीन करेंगे. बेशक खुशियां मनाइये, मगर यह वक्त है गंभीरता से सोचने-समझने और आत्मचिंतन का.
जिंदा रहने, सबसे आगे बढ़ने की जद्दोजहद, तमाम व्यस्तताओं के बावजूद तनिक ठहर कर, क्योंकि इसके बाद अगले पांच वर्षो तक के लिए हम अपनी जिंदगी इनके हाथों में गिरवी रखनेवाले हैं, यह भी विचारें कि ठीक ऐसे ही समय आमजनों के संवेदनशील मुद्दे जोर-शोर से क्यों उछाले जाते हैं? जैसे डोमिसाइल का मुद्दा. इसके पक्ष-विपक्ष में चाहे जो भी तर्क दिये जायें, प्रश्न यह है कि क्यों यह सत्ताच्युत या सत्ता के गलियारे में जाने को आतुर-आकुल तथाकथित नेताओं और उनके छुटभैयों द्वारा ही उछाला जाता है? कहीं कोई तालमेल नहीं, जितने नेता उतनी बातें. और सत्तासीन होते ही उनकी बोलती क्यों बंद हो जाती है?
ठीक ऐसा ही एक और मामला उभारा गया है लाल पाड़ साड़ीवाला, जो सरना और ईसाई आदिवासियों को अलग-अलग वोट बैंक बनाने की साजिश है.यह सत्य है कि सांस्कृतिक दृष्टि से ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों की आदि संस्कृति और धार्मिक आस्था को क्षति पहुंचायी है, पर इसी साड़ी को बड़े गर्व से धारण करनेवाली आदिवासी बालाओं के साथ जब राज्य या राज्य के बाहर संपन्न घरों में, हाट-बाजारों में, बस स्टैंड या रेलवे स्टेशनों में, हर कहीं उनके साथ गुलामों की तरह सुलूक किया जाता है, तब विरोध में कहीं से कोई आवाज क्यों नहीं उठती है? मुद्दों पर राजनीति क्यों हावी हो जाती है?
अरुण मलुआ, रांची