झारखंड गठन के बाद से ही समुचित विकास के लिए छटछटा रहा है. लेकिन यह छटपटाहट सिर्फ राजनेताओं के भाषण व घोषणाओं में ही दिखती है. असल में झारखंड केंद्र प्रायोजित योजना मद में पूरी राशि तक इसलिए नहीं ले पाता है, क्योंकि समय पर पहली किस्त की राशि खर्च ही नहीं कर पाता है. अब इसे क्या कहा जाये? सरकार की अस्थिरता इस राज्य की सबसे बड़ी विडंबना रही है.
सरकारी मशीनरी अपने कर्तव्यों के प्रति कितनी जवाबदेह रही है, यह बीते तीन वर्षो में झारखंड द्वारा 12 हजार 32 करोड़ की बड़ी राशि केंद्र से नहीं ले पाने से पता चलता है. इतनी बड़ी राशि से क्या झारखंड खास कर ग्रामीण क्षेत्रों का कायाकल्प नहीं होता? राज्य को 178 करोड़ रुपये इंदिरा आवास के लिए नहीं मिल पाये. वहीं बीआरजीएफ के 681 करोड़ रुपये केंद्र के पास लौट गये. ये ऐसी योजनाएं हैं जिनका सीधा संबंध गांवों से है. बड़ी संख्या में बीपीएल परिवार इंदिरा आवास के लिए रोजाना प्रखंड कार्यालयों का चक्कर लगाते हैं.
लेकिन, बीडीओ राशि नहीं होने की बात कह कर लौटा देते हैं. वहीं समय पर उपयोगिता प्रमाण-पत्र नहीं देने के कारण 178 करोड़ की राशि केंद्र से लेने में झारखंड वंचित रह गया. इसके लिए दोषी कौन है? जमीन पर देखें तो योजनाओं की सही मॉनिटरिंग नहीं होने से एक तो सही लोगों को योजना का लाभ नहीं मिल पाता है, वहीं कमीशन के चक्कर में योजनाएं समय पर पूरी नहीं हो पाती हैं. इसको देखनेवाला कौन है? जनप्रतिनिधि का पहला दायित्व है कि वह जनता को सरकारी योजनाओं का लाभ दिलवाये. लेकिन, शायद यहां के जनप्रतिनिधियों को या तो योजनाओं की पूर्ण जानकारी नहीं होती है या मामला कुछ और है.
जिले के वरीय अधिकारी भी समय पर योजनाओं का मूल्यांकन नहीं करते हैं. इस सबके लिए कहीं-न-कहीं सरकार को जवाबदेही लेनी ही होगी. योजना मद में कितना खर्च हो रहा है, इसको पारदर्शी बनाने के लिए हालांकि ऑन लाइन आंकड़े भरे जाते हैं, लेकिन इसे देखने के लिए कोई जवाबदेह संस्था नहीं है. झारखंड की नयी सरकार को इस पर ध्यान देने की जरूरत है. केंद्र प्रायोजित योजना मद की राशि लौटे नहीं, इसको सुनिश्चित करने के लिए सरकार को चुनौती लेनी ही होगी. दोषी कोई भी हो, कार्रवाई होनी चाहिए.