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नफरत का रास्ता रोकते महात्मा

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार शहीद किये जाने के बावजूद गांधी आज भी जिंदा हैं, मूल्यों और विचारों की बहुत ऊंची मीनार की तरह. यह मीनार अपने देश और अपने लोगों को गुलामियों के अंधेरे में धकेले जाने के खिलाफ खड़ी है. इसीलिए, वे गांधी पर सीधे या प्रकारांतर से हमले कर रहे हैं. बीते दस महीनों […]

उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
शहीद किये जाने के बावजूद गांधी आज भी जिंदा हैं, मूल्यों और विचारों की बहुत ऊंची मीनार की तरह. यह मीनार अपने देश और अपने लोगों को गुलामियों के अंधेरे में धकेले जाने के खिलाफ खड़ी है. इसीलिए, वे गांधी पर सीधे या प्रकारांतर से हमले कर रहे हैं.
बीते दस महीनों में ऐसा कई बार हुआ. कभी सीधे उनका नाम लेकर, कभी प्रकारांतर से और कभी उनके हत्यारे के महिमामंडन के जरिये. महात्मा गांधी और उनके विचारों के खिलाफ इस तरह के अनर्गल प्रलाप पचास के दशक के बाद शायद ही कभी देखा-सुना गया हो.
यह अनायास नहीं हो सकता. पहले, कुछ स्वयंसेवकों और हिंदू महासभाइयों ने उनके खिलाफ टिप्पणी की. फिर देश के विभिन्न हिस्सों में पता नहीं कहां से अचानक कुछ ‘गोड्सेवादी’ सक्रिय हो गये. रात के अंधेरे में वे किसी पुल पर गोड्से के नाम की पट्टिका लगाने लगे. कुछ इसी तरह के हिंदुत्ववादी-उग्रवादियों की तरफ से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ में गोड्से की प्रतिमा लगाने की घोषणा सामने आयी.
समाज ने इन उपद्रवियों को सिरे से खारिज किया. अभी यह सब चल ही रहा था कि बीते सप्ताह एक अवकाशप्राप्त न्यायाधीश की टिप्पणी आयी कि गांधीजी ‘ब्रिटिश-एजेंट’ थे! इस क्रम में विश्व हिंदू परिषद से संबद्ध किसी ‘साध्वी’ ने गांधीजी के खिलाफ अनर्गल प्रलाप किया. कुछ टीवी चैनलों के जरिये चर्चा में आयीं उक्त ‘साध्वी’ की एक राजनीति भी है. वह 2012 में उत्तर प्रदेश के एक निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव भी लड़ चुकी हैं. तो क्या योजना के तहत गांधी के खिलाफ नये सिरे से माहौल बनाया जा रहा है? आखिर गांधी से इन्हें क्या डर है? गांधी जी की नृशंस हत्या को ‘गांधी-वध’ कहनेवाले ये हिंदुत्ववादी किस तरह के हिंदू हैं?
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ इन तत्वों ने ‘चरित्र-हनन के अपने बारूदखाने’ से सारे हरबो-हथियार निकाले. क्या-क्या नहीं कहा, क्या-क्या नहीं किया? भारत में ‘सेक्युलर डेमोक्रेसी’ और विविधता में एकता तथा इसके बहु-वचनात्मक स्वरूप को खारिज करने के लिए नेहरू और उनके विचारों पर हमले जरूरी थे, इसलिए नेहरू को शुरू से ही निशाने पर लिया गया. लेकिन, गांधीजी के खिलाफ उनके पास ज्यादा कुछ नहीं बचा था.
एक ‘सिरफिरे हिंदुत्ववादी’ ने तो उनकी हत्या ही कर दी, जिसका नाम नाथूराम गोड्से था. नृशंस हत्या के बाद कुछ हिंदुत्वादी संगठनों पर प्रतिबंध लगा. इनके अनेक लोग गिरफ्तार किये गये. वे कहते रहे कि इस हत्या में उनका कोई हाथ नहीं. अदालतों या आयोगों ने भी किसी खास संगठन के दोषी होने की बात साबित नहीं की. लेकिन, इतिहास के ब्योरों को कैसे मिटाया जा सकता है?
विभाजन, आजादी की घोषणा के दौरान और उसके बाद देश में सिर्फ दंगे ही नहीं हुए, गांधीजी के खिलाफ जम कर विषवमन भी किया गया. इसमें तरह-तरह के हिंदुत्ववादी संगठनों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता. नेहरू ही नहीं, सरदार पटेल ने भी तब ऐसे संगठनों की भूमिका पर टिप्पणी की थी. 30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या से उपजे राष्ट्रीय शोक और आक्रोश के बीच नेहरू ने रेडियो पर कहा- ‘पिछले कुछ महीनों और वर्षो से देश में बहुत जहर फैलाया गया है. इस जहर ने लोगों के दिमाग को विषाक्त कर दिया है.
हमें इस जहर का मुकाबला करना है, जो हमें घेरे हुए है.’ दुर्गादास संपादित ‘सरदार पटेल्स कॉरेस्पांडेंस’ (1945-50, खंड-5, पृष्ठ 323) में पटेल के एक पत्र के अंश से भी साफ है कि कुछ संगठनों-संस्थाओं (उन्होंने तो बकायदा इनका नामोल्लेख किया है) ने उस वक्त जहरीला माहौल तैयार कर दिया था. कुछ वैसा ही जहर क्या आज फिर से चारों तरफ फैलता नहीं नजर आ रहा है?
गांधी को लेकर इन दिनों सचमुच बड़े दिलचस्प विमर्श और प्रलाप सामने आ रहे हैं. एक तरफ, ‘सत्ता-शीर्ष’ से महात्मा गांधी को स्वच्छता के ‘प्रतीक-पुरुष’ होने तक सीमित करने का दर्शन सामने आ रहा है, तो दूसरी तरफ विश्व हिंदू परिषद, हिंदू महासभा और इस तरह के अन्य संगठनों से जुड़े कट्टरपंथियों की तरफ से उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया जा रहा है, जिसने आजादी की लड़ाई के दौरान और उसके बाद भारतीय समाज का भला नहीं किया और जिसकी गलतियों की वजह से ही पाकिस्तान बन गया! गांधी पर इस तरह के प्रलाप करनेवालों के राजनीतिक-पूर्वजों (उनके अस्तित्व में होने के बावजूद) की स्वाधीनता आंदोलन में लगभग गैर-मौजूदगी पर सवाल उठाने के बजाय हम इतिहास की उन परतों को उघारना चाहेंगे, जिनमें भारत के एक आधुनिक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के निर्माण और विकास प्रक्रिया की कहानी दर्ज है.
आजादी और विभाजन के तत्काल बाद कश्मीर का सवाल आया, तो गांधीजी सबसे पहले नेता थे, जिन्होंने पूरी सरकार और कांग्रेस पार्टी से कहा कि कश्मीर का मसला भारत के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भविष्य के लिए चुनौती भरा मसला है. इसे बहुत संजीदा होकर हल करना होगा. विकास की अपनी धारणा को उन्होंने ग्राम-स्वराज के जरिये देश के समक्ष रखा. बहुरंगी संस्कृति भरे भारत की भाषा समस्या, शिक्षा नीति, विदेश नीति, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक समरसता के अपने विचारों को उन्होंने राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाया.
उस वक्त भी कांग्रेस के अंदर और बाहर, राजनीतिक विचारों से व्यापक सहमति के साथ अर्थनीति से जुड़े उनके कतिपय विचारों की व्यावहारिकता पर सवाल उठे. आज भी गांधीजी के राजनीतिक चिंतन और उनकी अर्थनीति पर सवाल उठाते विमर्श हों, तो कोई समस्या नहीं है. लेकिन, भारत-निर्माण के उनके बुनियादी मूल्यों-आदर्शो को ही अगर निशाना बनाया जाने लगे, तो निस्संदेह वह विमर्श नहीं, एक तरह का हमला है. यह सिर्फ गांधी पर नहीं, बल्कि भारत के विचार और भारत के वजूद पर हमला है.
गांधी और गांधी-विचार पर सीधे या प्रकारांतर से यह हमले योजना के तहत कराये जा रहे हैं. राजनीतिक-आर्थिक तौर पर मौजूदा भारत की ढेर सारी कमियां, विकृतियां और कमजोरियां हैं. इनमें कइयों के लिए हमारे पुराने नेता, हुक्मरान और योजनाकार दोषी हैं. लेकिन, हमारे राष्ट्र-राज्य में जो कुछ अच्छा, सकारात्मक और संभावनाशील है, वह स्वाधीनता आंदोलन और उसके बाद की हमारी विविधताभरी राजनीतिक विरासत की देन है. एक सामंती-औपनिवेशक समाज का एक क्रियाशील लोकतंत्र, सेक्युलर समाज और विविधता में एकता के विशाल ढांचे में अवतरण ऐतिहासिक तौर पर अपने ढंग का अनोखा प्रयोग है, जो निरंतर कोशिशों से ही संभव हो सका.
इसे सामंती-धर्माध समाज के अंधेरे में धकेलना हो या हमजोली पूंजीवादी व्यवस्था (क्रोनी कैपिटलिज्म) में तब्दील करना हो, ये दोनों ही खतरनाक रास्ते अंतत: गांधी और उनके विचार को लांघते हुए ही गुजरेंगे. यही मुश्किल है. शहीद किये जाने के बावजूद गांधी आज भी जिंदा हैं, मूल्यों और विचारों की बहुत ऊंची मीनार की तरह. यह मीनार अपने देश और अपने लोगों को गुलामियों के अंधेरे में धकेले जाने के खिलाफ खड़ी है. इसीलिए, वे गांधी पर सीधे या प्रकारांतर से लगातार हमले कर रहे हैं.

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