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‘आप’ की यह जो ‘तू-तू मैं-मैं’ है

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार दोनों धड़ों के पास एक-दूसरे के खिलाफ तथ्य और प्रमाण हैं. निर्णय किस अदालत में होगा? संभावनाएं कई हैं. मुख्य संभावना यही है कि सिद्धांत और विचार के प्रति समर्पित लोग अलग कर दिये जाएंगे या अलग हो जाएंगे. आम आदमी पार्टी के राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी) से पार्टी के दो […]

रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
दोनों धड़ों के पास एक-दूसरे के खिलाफ तथ्य और प्रमाण हैं. निर्णय किस अदालत में होगा? संभावनाएं कई हैं. मुख्य संभावना यही है कि सिद्धांत और विचार के प्रति समर्पित लोग अलग कर दिये जाएंगे या अलग हो जाएंगे.
आम आदमी पार्टी के राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी) से पार्टी के दो संस्थापक सदस्यों- प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव- को निकाले जाने के बाद भी ‘आप’ का आंतरिक कलह थम नहीं रहा. आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार हो रही है.
बहुत से लोगों ने इस नवोदित पार्टी से जो उम्मीद बांधी थी, अन्य पार्टियों से भिन्न एक नयी राजनीतिक पार्टी का विश्वास पाला था, वह खंडित हो चुका है. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से ‘आप’ किस अर्थ में भिन्न है? प्रशांत भूषण के अनुसार, यह पार्टी कुछ प्रमुख सिद्धांतों से जुड़ी थी. इसमें पारदर्शिता, विश्वसनीयता, स्वराज और आंतरिक लोकतंत्र का महत्व था. यह उन सभी पार्टियों से भिन्न थी, जो समझौते करती हैं.
अरविंद केजरीवाल ने कभी विचारधारा को महत्व नहीं दिया. उन्होंने बार-बार ‘वैकल्पिक राजनीति’ की बात की, पर इसका कोई ठोस या व्यापक प्रारूप उनके पास नहीं था. संसदीय राजनीति और चुनावी राजनीति के साथ होकर क्या किसी वैकल्पिक राजनीति का जन्म हो सकता है? क्या वैकल्पिक राजनीति की अपनी कोई स्पष्ट विचारधारा होगी ही नहीं? ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आंदोलन के बाद ‘आप’ का जन्म हुआ. भ्रष्टाचार का संबंध तो व्यवस्था से है.
व्यवस्था बदले बिना भ्रष्टाचार से मुक्ति संभव नहीं है. केजरीवाल ने बार-बार व्यवस्था विरोध और परिवर्तन की बात कही है. जयप्रकाश नारायण ने जब ‘संपूर्ण क्रांति’ की घोषणा की थी, तब भी उनके पास संपूर्ण क्रांति से जुड़ी कोई विचारधारा नहीं थी. जहां तक राजनीतिक विचारधारा का प्रश्न है, वह आज भी पूंजीवादी या समाजवादी ही है. भारतीय राजनीति वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी है. ‘आप’ एक मध्यमार्गी पार्टी है, जिसमें वामपंथी, समाजवादी, दक्षिणपंथी, कॉरपोरेट समर्थक सब शामिल हुए.
व्यावहारिक राजनीति अब सिद्धांतों के सहारे नहीं चलती. वह वैचारिकी और सैद्धांतिकी का भ्रम उत्पन्न करती है. व्यावहारिक और चुनावी राजनीति में समझौतों का महत्व है. वाम दलों ने भी समय-समय पर तात्कालिक कारणों से ही सही, अपने से भिन्न विचारधारा वाले दलों के साथ समझौते किये हैं. समझौतों ने आदर्शो की इति-श्री कर दी.
योगेंद्र यादव चुनावी राजनीति में असफल रहे हैं, केजरीवाल सफल. योगेंद्र यादव की बौद्धिक छवि है, अरविंद केजरीवाल की जन छवि है. चुनावी राजनीति में अब बौद्धिकों का महत्व नहीं रहा. केजरीवाल ने आंदोलन से चुनाव तक अपने को जनता से जोड़ा. उनकी जन छवि बनी, वे लोकप्रियता के लिहाज से मोदी के बाद भारतीय राजनीति में दूसरे स्थान पर रहे. भाजपा में गोविंदचार्य बौद्धिक थे. आज वे कहां हैं? प्रशांत भूषण दिल्ली विधानसभा चुनाव के प्रचार में नहीं थे.
योगेंद्र यादव भी नहीं थे. वे स्टार प्रचारक कभी नहीं हो सकते. प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ‘आप’ में अलग-थलग पड़ते गये. मीडिया में बौद्धिकों का महत्व हो सकता है, पर वे चुनाव जिताने में कामयाब नहीं हो सकते. वैचारिक जगत में वे प्रमुख है, पर राजनीतिक वैचारिकी से अलगाव हो चुका है. बौद्धिक मार्क्‍सवादी आज कहां हैं?
चुनावी राजनीति का अब सैद्धांतिक-वैचारिक राजनीति से नाम मात्र का संबंध है. राजनीति अब मात्र चुनाव जीतने में सिमट कर मूल्यहीन, आदर्शच्युत और विचार विमुख हो चुकी है. अब ‘मार्केट पॉलिटिक्स’ का युग है. मोदी ने जम कर मार्केटिंग की. वे विजयी हुए. प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव बौद्धिक हैं. वे जमीनी नेता क्या कार्यकर्ता भी कभी नहीं रहे.
पूछ तो जमीनी नेताओं की होती है. जमीनी नेताओं का अपना एक छद्म भी होता है. राजनीति में अब बौद्धिक, विचारवान लोगों का अधिक महत्व नहीं. आवारा पूंजी ने विचारों पर प्रहार कम नहीं किया है. लेकिन, विचार स्थायी, टिकाऊ, मूल्यपरक होते हैं. आवारा पूंजी उड़नछू होती है, अस्थायी होती है और अपना एक मूल्य निर्मित करती है.
राजनीतिक पार्टी में एक व्यक्ति, दो पद के सिद्धांत पर पहले भी कम हंगामा नहीं हुआ है. आप में अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र-प्रशांत के बीच असहमति के कारण क्या हैं? फिलहाल पार्टी विभाजित नहीं हुई है, पर पार्टी में दो धड़े बन गये हैं. पार्टी में आंतरिक कलह है, लेकिन पार्टी संकटग्रस्त नहीं है.
योगेंद्र यादव व्यावहारिक राजनीति में असफल रहे हैं. उन्होंने दिल्ली विधानसभा का दोनों बार चुनाव न लड़ कर गलतियां की हैं. उन्हें आप का ‘चाणक्य’ कहा जाता था. कभी किशन पटनायक ने लालू यादव को चंद्रगुप्त कहा था. कहने में और वास्तविकता में अंतर है. योगेंद्र-प्रशांत की ‘आप’ के निर्माण, उसकी वैचारिकी की निर्मिति में एक बड़ी भूमिका रही है. इन दोनों का मुख्य आरोप है कि पार्टी लक्ष्यच्युत हो चुकी है. दोनों पर पार्टी के विरुद्ध काम करने के आरोप हैं, प्रशांत की बहन पर चंदादाताओं को पार्टी के खिलाफ लिखने के आरोप हैं.
जहां तक पार्टी में व्यक्ति-पूजा का सवाल है, वह भारतीय राजनीति में आरंभ से है. ‘आप’ किसी भी अर्थ में अन्य राजनीतिक दलों से भिन्न नहीं है. आप के पूर्व विधायक राजेश गर्ग से केजरीवाल की बातचीत (ऑडियो टेप) यह प्रमाणित करती है कि केजरीवाल कांग्रेस के आठ विधायकों में से छह को तोड़ कर नयी पार्टी बना कर समर्थन मांग रहे थे. यहां टेप की सत्यता का प्रश्न भी है. योगेंद्र यादव ने लगाये गये आरोपों की जांच लोकपाल से कराने की मांग की है.
प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव संयोजक पद के मुद्दे को बड़ा नहीं मानते. उनका मतभेद नीतियों को लेकर है. कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के निर्णय का उन्होंने विरोध किया था. ‘आप’ में आप के इन दो प्रमुख संस्थापक सदस्यों की आवाज नहीं सुनी जा रही है. 67 में से 55 विधायकों ने प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव पर पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण सख्त कार्रवाई की मांग की है. कई विधायकों और एक सांसद ने ‘पार्टी के साथ गद्दारी’ का आरोप लगा कर दोनों को पार्टी से निष्कासित करने तक की मांग की है.
‘आप’ के सत्ता-संघर्ष में योगेंद्र-प्रशांत की हार सुनिश्चित है. सत्ता-प्राप्ति के बाद ‘आप’ व्यावहारिक राजनीति के साथ है- कम समय में उसने आदर्शवाद से अवसरवाद तक की यात्रा की है. व्यक्तिवाद और अवसरवाद, दोनों पूंजीवाद की जुड़वां संतानें हैं. बेंगलुरू से अरविंद केजरीवाल के लौटने के बाद टूटना होगा या जुटना? 28 मार्च तक ‘आप’ की राष्ट्रीय परिषद की बैठक की प्रतीक्षा की जायेगी.
दोनों धड़ों के पास एक-दूसरे के खिलाफ तथ्य और प्रमाण हैं. निर्णय किस अदालत में होगा? संभावनाएं कई हैं. मुख्य संभावना यही है कि सिद्धांत और विचार के प्रति समर्पित लोग अलग कर दिये जाएंगे या अलग हो जाएंगे. वैकल्पिक राजनीति का संसदीय राजनीति से रिश्ता विचार का विषय है. ‘आप’ की तू-तू मैं-मैं ने, उन पर भरोसा करनेवालों का भरोसा तोड़ा है. हमारा समय भरोसों के टूटने का समय है.

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