27.4 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

पूर्वी राज्यों की उपेक्षा और केंद्र

अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ स्तंभकार याद करें, नरेंद्र मोदी चुनाव अभियान के दौरान पूर्वी राज्यों में वादा कर रहे थे कि विकास के मामले में भारत के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से के बीच के फर्क को मिटा देंगे, लेकिन उनकी सरकार के अब तक के कदमों और ममता की मांग पर ठंडे रुख में पूर्वाचल की […]

अरुण माहेश्वरी

वरिष्ठ स्तंभकार

याद करें, नरेंद्र मोदी चुनाव अभियान के दौरान पूर्वी राज्यों में वादा कर रहे थे कि विकास के मामले में भारत के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से के बीच के फर्क को मिटा देंगे, लेकिन उनकी सरकार के अब तक के कदमों और ममता की मांग पर ठंडे रुख में पूर्वाचल की वंचना के इतिहास को पलटने का कोई संकेत नहीं है. अगर केंद्र का यही रुख जारी रहा, तो भविष्य में राष्ट्रीय एकता और अखंडता के संदर्भ में केंद्र-राज्य संबंधों की नये सिरे से गहन समीक्षा की जरूरत पड़ेगी.

इस हफ्ते मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पहली मुलाकात की. इसके राजनीतिक उद्देश्यों को लेकर अलग-अलग कयास लगाये जा रहे हैं, लेकिन इसका घोषित उद्देश्य प्रधानमंत्री को पश्चिम बंगाल की संकटग्रस्त वित्तीय स्थिति से परिचित कराना तथा उसके समाधान के लिए अतिरिक्त सहायता हासिल करना था. खबरों के मुताबिक प्रधानमंत्री ने उनसे कहा कि 14वें वित्त आयोग ने पश्चिम बंगाल को करीब 20,500 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि के अंतरण की जो सिफारिश की है, उसके अलावा वे और कुछ नहीं कर सकते हैं. उनकी दलील थी कि और कुछ करने पर दूसरे राज्य भी ऐसी मांग उठाने लगेंगे.

14वें वित्त आयोग की सिफारिशें मान लेने के बाद ऊपरी तौर पर तो लग रहा है कि केंद्र ने कर राजस्व का बड़ा हिस्सा राज्यों को सौंप दिया है, पर सिफारिशों का राज्यों की वित्तीय स्थिति पर क्या असर होगा, यह स्पष्ट नहीं है. रिपोर्ट पर आयोग के ही एक सदस्य प्रो अभिजीत सेन ने असहमति दर्ज करायी है. उन्होंने कहा है कि राज्यों की धारणा होती है कि वित्त आयोग की सिफारिशों से केंद्रीय योजना में आनेवाली राशि पर प्रभाव नहीं पड़ेगा, जबकि नयी सिफारिशों के बाद केंद्र कभी भी योजना मद में घोषित परिव्यय में कटौती कर सकता है. ऐसे में भविष्य में कुछ राज्यों को अचानक वित्तीय परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.

ममता की मदद की मांग और केंद्र के इनकार से जो अस्पष्ट स्थिति उभरी है, उसके पीछे एक कारण यह भी है कि कर राजस्व के राज्यों के बीच बंटवारे के मामले में कई ऐसे बिंदु हैं, जिनके बारे में स्थिति भ्रामक है. भारत में केंद्रीय कर राजस्व के राज्यों के बीच वितरण के लिए दो प्रमुख एजेंसियां काम करती रही हैं- योजना आयोग और वित्त आयोग. योजना आयोग एक स्थायी निकाय था, जो राष्ट्रीय विकास के लक्ष्यों को निर्धारित कर उनकी पृष्ठभूमि में केंद्रीय सहायता प्राप्त योजनाओं का खाका तैयार करता था और उन पर अमल के लिए राज्यों को वित्त मुहैया कराता था. केंद्रीय कर राजस्व का करीब 40 फीसदी हिस्सा योजना आयोग के जरिये ही राज्यों के पास पहुंचता था. अब इसके स्थान पर नीति आयोग का गठन किया है. यह नीति आयोग केंद्रीय कर राजस्व के आवंटन में कोई भूमिका अदा करेगा या नहीं, यह स्पष्ट नहीं हैं. जबकि, 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार राज्यों को गैर-योजना मद में 42 प्रतिशत तक राशि दिये जाने के कारण योजना मद में अनुदानों के मामले में केंद्र सरकार के हाथ बंध चुके हैं. 2015-16 के केंद्रीय बजट में इसका असर दिखा है, जिसमें कई ग्रामीण विकास योजनाओं के लिए आवंटन कम किया गया है.

14वें वित्त आयोग ने पिछड़े राज्य बिहार को 13वें आयोग की तुलना में अधिक राशि देने की सिफारिश की है. लेकिन, हकीकत यह है कि केंद्रीय कर राजस्व में बिहार का हिस्सा 1.3 फीसदी कम हो गया है. साथ ही, पिछड़े क्षेत्र को मिलनेवाले अनुदान के खत्म होने की आशंका और विशेष दर्जा न मिलने पर राज्य की वित्तीय स्थिति पर क्या असर पड़ेगा, इस पर विचार नहीं किया गया है.

केंद्रीय कर राजस्व में पश्चिम बंगाल और झारखंड की हिस्सेदारी प्रतिशत में भी दशमलव अंकों में मामूली वृद्धि हुई है, पर केंद्रीय योजना मद में होनेवाली कटौती के बाद यह वृद्धि नकारात्मक असर डाल सकती है. बिहार के मुख्यमंत्री ने वित्त आयोग की सिफारिशों में छिपे खेल को सही पकड़ा है. उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर विरोध जताया है और साफ कहा है कि केंद्रीय कर राजस्व के अंतरण में वृद्धि दिखावटी है, इससे बिहार को लाभ नहीं, हानि होगी.

दरअसल, केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय असंतुलनों को दूर करने में वित्त आयोग से भी कहीं ज्यादा योजना आयोग की भूमिका हुआ करती थी. वह अनुदानों की राशि को तय करने में राज्यों की आबादी, क्षेत्रफल, प्रतिव्यक्ति आय और वित्तीय अनुशासन जैसे पहलुओं को ध्यान में रखता था, जबकि वित्त आयोग सिर्फ क्षेत्रफल का संज्ञान लेता है.

1983 में केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा के लिए ‘सरकारिया आयोग’ के गठन की पृष्ठभूमि यह थी कि राज्य सरकारें सिर्फ प्रशासनिक एजेंसियां रह गयी है. विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय क्षेत्रों में आवश्यकता से अधिक केंद्रीकरण से राज्यों को नुकसान हुआ है. अधिकतर समवर्ती विषयों पर केंद्र का अधिकार कायम हो गया है. राज्यों के संसाधनों में उस दर से वृद्धि नहीं हुई, जिस दर से उनकी जिम्मेवारियां बढ़ी हैं. योजनाबद्ध विकास से केंद्र के हाथ मजबूत हुए हैं. इस आयोग ने रिपोर्ट में कहा था कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच करों, उधार लेने तथा परिव्यय के संबंध में समवर्ती शक्तियां हैं. इसी में प्राय: गंभीर आर्थिक व प्रशासनिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं, जिन्हें मुश्किल बातचीत और समझौतों के जरिये निपटाना होता है, अन्यथा न्यायपालिका का सहारा लेना पड़ता है.

इस आयोग की रिपोर्ट 1988 में प्रकाशित हुई थी. उसके बाद के 27 वर्षो में दुनिया काफी बदल गयी है. 1991 के बाद के उदारतावादी दौर में, जब साफ होने लगा कि विकास के कामों में सरकार प्रत्यक्ष रूप में ज्यादा शामिल नहीं होगी और निजी क्षेत्र के जरिये निवेश हासिल करना होगा, सभी राज्यों के बीच निजी निवेश को लुभाने के लिए करों में छूट देने की होड़ शुरू हो गयी. इससे राज्यों की आय प्रभावित होने लगी और राज्य सरकारें अपने खर्च चलाने के लिए उधार पर आश्रित होने लगीं. कई राज्यों ने निवेश को लुभाने में बड़ी राशि बरबाद की, लेकिन जिन राज्यों में पहले से इन्फ्रास्ट्रर विकसित था, ज्यादा पूंजी निवेश उन्हीं में हुआ और उन्हीं राज्यों को बहु-स्तरीय सरकारी सहायता भी ज्यादा मिली. इससे देश के पूर्वी व पश्चिमी राज्यों के बीच फासला बढ़ता चला गया.

याद करें, नरेंद्र मोदी अपने चुनाव अभियान के दौरान पूर्वी राज्यों में वादा कर रहे थे कि विकास के मामले में भारत के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से के बीच के फर्क को मिटा देंगे, लेकिन उनकी सरकार के अब तक के कदमों और ममता की मांग पर ठंडे रुख में पूर्वाचल की वंचना के इतिहास को पलटने का कोई संकेत नहीं है.

इतिहास का व्यंग्य देखिए कि एक समय में सरकारिया आयोग ने नोट किया था कि योजनाबद्ध विकास की अवधारणा ने राज्यों की तुलना में केंद्र के पक्ष में संतुलन को बिगाड़ा है और आज चिंता यह हो रही है कि योजना मद में केंद्र की हिस्सेदारी कम होने से भारत के संतुलित विकास का मार्ग बाधित होगा.

यह स्थिति तब और भी चिंताजनक हो जाती है, जब नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया वित्त आयोग की सिफारिशों को मान लेने के लिए प्रधानमंत्री की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, लेकिन योजना खर्च में कटौती को लेकर जरा भी विचलित नहीं हैं. ऐसे में जिन्हें भ्रम है कि नीति आयोग कमोबेश वही काम करेगा, जो योजना आयोग करता था, उनका भ्रम जल्द दूर हो जायेगा. राज्यों तक केंद्रीय राजस्व के अंतरण की एक महत्वपूर्ण एजेंसी की हत्या, खासकर पिछड़े राज्यों के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए एक बुरी खबर है.

सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह कटुक्ति शामिल की थी कि ‘राष्ट्रीय स्तर पर जो लोग सत्ता में होते हैं, उन्हें राज्य स्तर की शक्तियों पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए ऐसी विरोधी नीतियों और उक्तियों को विवश होकर अपनाना पड़ता है, जो सदैव राष्ट्र के दीर्घकालिक हितों के प्रतिकूल होती हैं.’ जाहिर है, अगर केंद्र सरकार का यही रुख जारी रहा, तो आनेवाले समय में राष्ट्रीय एकता और अखंडता के संदर्भ में केंद्र-राज्य संबंधों की नये सिरे से गहन समीक्षा की जरूरत पड़ेगी.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें