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कहां है लोकतंत्र की मूल भावना!

* एडीआर की नयी रिपोर्ट जिसे हम लोकतंत्र, या जनता का जनता के लिए जनता के द्वारा शासन कहते हैं– वह वास्तव में चुनावों द्वारा शासन करने का अधिकार हासिल करनेवाले चुनिंदा लोगों का तंत्र होता है. जनता की आकांक्षाएं पूरी करने की जवाबदेही इन्हीं मुट्ठीभर लोगों पर होती है. लोकतंत्र की मूल भावना बची […]

* एडीआर की नयी रिपोर्ट

जिसे हम लोकतंत्र, या जनता का जनता के लिए जनता के द्वारा शासन कहते हैंवह वास्तव में चुनावों द्वारा शासन करने का अधिकार हासिल करनेवाले चुनिंदा लोगों का तंत्र होता है. जनता की आकांक्षाएं पूरी करने की जवाबदेही इन्हीं मुट्ठीभर लोगों पर होती है.

लोकतंत्र की मूल भावना बची रहे, इसका उपाय सिर्फ यह है कि जनता स्वच्छ छवि वाले प्रतिनिधि चुने, चुनावों को भ्रष्टाचार और धनबलबाहुबल से मुक्त रखा जाये, राजनीति के अपराधीकरणकॉरपोरेटीकरण पर लगाम लगायी जाये. लेकिन एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और नेशनल इलेक्शन वाच (एनइडब्ल्यू) द्वारा इस संदर्भ में जारी ताजा आंकड़े हमारी चिंताओं को बढ़ानेवाले हैं.

वर्ष 2004 से 2013 के बीच लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान उम्मीदवारों द्वारा अपने आपराधिक रिकॉर्ड एवं संपत्ति के बारे में दाखिल हलफनामों से पता चलता है कि भारत में आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की संभावना साफ छवि वाले उम्मीदवारों की तुलना में कहीं अधिक होती है.

चिंताजनक यह है कि प्रमुख पार्टियां दागियों को चुनाव जीतने की क्षमताके आधार पर टिकट देने के लिए आसानी से तैयार हो जाती हैं. इतना ही नहीं, आपराधिक छवि वाले उम्मीदवार आसानी से दूसरी बार भी टिकट हासिल कर लेते हैं. ऐसे में इस जानकारी पर ज्यादा हैरत नहीं होती कि मौजूदा लोकसभा में 30 फीसदी और राज्यसभा में 17 फीसदी उम्मीदवार दागी पृष्ठभूमि के हैं.

अगर राजनीति के अपराधीकरण की इस प्रवृत्ति को हरियाणा से कांग्रेस के एक सांसद के इस विवादित बयान के साथ जोड़ कर देखा जाये कि राज्यसभा की सीट 100 करोड़ में खरीदी और बेची जाती है, तो माथे पर चिंता की सिलवटें और गहरा जाती हैं. ऐसा भी नहीं है कि धनबल और बाहुबल अलगअलग काम करते हैं. एडीआर की रिपोर्ट इस संदर्भ में दो बातें बताती हैं. एक, दागी उम्मीदवार अमूमन धनवान होते हैं.

दूसरा, चुनाव जीतने के बाद पांच वर्षो में उनकी संपत्ति में 1000 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी देखी गयी है. किसी भी मानक से इस बढ़ोतरी पर आश्चर्य ही किया जा सकता है. ऐसे में यह सवाल पूछना स्वाभाविक है कि जब तक चुनावों में इतने बड़े पैमाने पर धनबल और बाहुबल का खेल चलता रहेगा, तब तक क्या लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र कहा जा सकता है? एडीआर की नयी रिपोर्ट देश में लंबित पड़े चुनाव सुधार की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत पर जोर दे रही है. क्या दागियों को प्रश्रय देनेवाली पर्टियों से इसकी उम्मीद की जा सकती है!

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