स्वच्छंद होना मानवता के समुचित विकास के लिए शायद आवश्यक हो, लेकिन अति–स्वच्छंदता उच्छृंखलता की जननी है. ऐसे में मनुष्य विवेक खो देता है. उदाहरण आपके सामने है– किसी सगे को संगीन बीमारी हो, तो हम जाति–धर्म–भाषा–क्षेत्र के आधार पर चिकित्सक का चयन नहीं करते.
फिर राजकाज भला हम कैसे ऐरे–गैरों के हाथों में सौंप देते हैं! सिर्फ जाति–धर्म देखा, भाषा या क्षेत्र देखा, पांच दिन के लिए शराब या पैसा देखा. न चरित्र, न काबिलीयत, न ईमानदारी, न अनुभव. नतीजा, यही जनता अपने ही कुकर्मो पर विश्लेषण न करते हुए आगे ऐसा न करने की कसम खाते हुए भी अनायास ही कहती है– मौजूदा सरकार से अच्छी पहले की सरकार थी.
ऐसी स्थिति में निराकरण स्वरूप यह कहा जा सकता है कि हाल के दिनों में शुद्धीकरण की दिशा में मील का पत्थर साबित होने लायक जो फैसले उच्चतम न्यायालय ने लिये हैं, उसमें एक कड़ी अगर और जुड़ जाये तो सोने पर सुहागा का काम करेगा– शिक्षकों की तर्ज पर विधायक, सांसद पात्रता परीक्षा. ऐसा हो, तो देश का भी भला होगा.
।। ले. कर्नल जयशंकर प्र भगत ।।
(पाकुड़)