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निरख सखी, ये खंजन आये

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार भक्तिकाल के प्राय: सभी अग्रदूतों ने ईश्वर तक जाने के लिए पारंपरिक प्रस्तर-प्रतिमा पूजन से इतर मार्ग अपनाया. शंकरदेव ने गांवों में नामघर बना कर कीर्तन-भजन को प्रश्रय दिया. नानकदेव ने संतों की वाणी को ही ग्रंथ बना कर गुरुद्वारों में ‘गुरुग्रंथ साहब’ की प्रतिष्ठा की. नये साल की पहली […]

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
भक्तिकाल के प्राय: सभी अग्रदूतों ने ईश्वर तक जाने के लिए पारंपरिक प्रस्तर-प्रतिमा पूजन से इतर मार्ग अपनाया. शंकरदेव ने गांवों में नामघर बना कर कीर्तन-भजन को प्रश्रय दिया. नानकदेव ने संतों की वाणी को ही ग्रंथ बना कर गुरुद्वारों में ‘गुरुग्रंथ साहब’ की प्रतिष्ठा की.
नये साल की पहली भोर. राजधानी दिल्ली के लोग मध्यरात्रि में नव वर्षागमन का उत्सव मना कर सो रहे थे और मैं दिल्ली हवाई अड्डे पर सूर्योदय की प्रतीक्षा कर रहा था, जो उस कोहरे में अंतध्र्यान था. सात बजे भुवनेश्वर के लिए मेरा विमान उड़ा और देखते ही देखते कोहरे के आवरण को फाड़ कर ऊपर चला गया, जहां सूना आकाश था और ललाई छोड़ चुके सूर्यदेव थे. मुङो एक कविता की पंक्तियां याद आयीं: बादल के ऊपर जो देखा/ सूना नभ था/ बादल के नीचे ही बरसे/ रिमझि म पानी..
यह मेरा-तेरा का दायरा, ये आंसू की बूंदें और मुस्कान की चांदनी सब कुछ धरती पर ही है. ऊपर आकाश में बस शून्य है. पूर्वज कह गये कि जो शून्य है, असीम है; वही पूर्ण है, अनादि-अनंत है. मैं सोचता हूं कि अगर विश्व चेतना के अग्रदूत हमारे ऋषि-मुनि अनादि-अनंत ब्रrा की परिकल्पना नहीं करते, तो विश्व का गणितज्ञ समुदाय शून्य के आविष्कार से वंचित रह जाता. शून्य का गणित भी पूर्ण के गणित के अनुसार चलता है- पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते. शून्य में भी कितना भी जोड़िये, घटाइये, गुणा-भाग करिये; कोई घट-बढ़ नहीं होगा. इस प्रकार ऋषियों-आचार्यो ने ईश्वर को वैज्ञानिक पद्धति से समझने का रास्ता बता दिया. ईश्वर को महर्षि पतंजलि ने वामन अवतार की तरह केवल तीन शब्दों में समेट लिया. पतंजलि सूत्र-‘सत्यं ज्ञानम् अनंतम् ब्रह्म.’
जिसे यह परिभाषा याद हो, वह न तो गणोश जी की प्रतिमा को दूध पिलायेगा, न अल्लाह के नाम पर सारी दुनिया में मार-काट मचायेगा. क्योंकि ईश्वर सत्य-स्वरूप है, जिसका कभी क्षरण नहीं होता और जिसका साक्षात्कार यम-नियमवाले सात्विक मन से ही हो सकता है, हत्या-बलात्कारवाली तामसिक बुद्धि से नहीं; वह ज्ञान-स्वरूप है, जिसका अनुभव हृदय में ही किया जा सकता है, बाहर नहीं. और तीसरी विशेषता यह कि वह अनंत है. इस अनंत के दो अर्थ हैं. पहला यह कि उसका न आदि है और न अंत. दूसरा अर्थ यह है कि वह किसी एक रूप में सीमित न होकर विभिन्न रूपों में है- ‘एकोùहं बहुस्याम.’ वह चर-अचर, जड़-जंगम सब में व्याप्त है. इसी बहुधावाद ने हिंदू समाज को इतना उदार बना दिया कि वह अपने धर्म की सुपरिभाषित चौहद्दी को लांघ कर, विशुद्ध श्रद्धावश दूसरे मजहबों के पीरों-बाबाओं को भी पूजने लगा. यदि सदियों के पराभव के दौर में भी हिंदू समाज ने अपने धर्म को बचाये रखा और भारत की धरती पर गंगा-जमुनी संस्कृति फल-फूल पायी, तो उसका सारा श्रेय हिंदू धर्म की इसी उदारता को है.
यह दूसरी बात है कि जमुना का पानी अहमक (‘अहमेक’ यानी मैं ही मैं हूं) होकर जब मर्यादा का उल्लंघन करने लगा और गंगा को धकियाने लगा, तब गंगाजल में भी उबाल आना स्वाभाविक था, वरना गंगा की शुद्ध-शीतल धारा जिधर जाती है, अमृत-पुत्रों की सभ्यता का विस्तार ही करती है.
ओड़िशा भगवान जगन्नाथ की लीलाभूमि और महाकवि जयदेव की जन्मभूमि है. जयदेव जिस केंदुली गांव में जन्मे थे, वह बंगाल, मिथिला और ओड़िशा-तीनों जगह हैं, मगर ओड़िशा वाले केंदुली गांव को ही प्रामाणिक माना गया है.
उड़ीसा की संस्कृतनिष्ठ समुन्नत शास्त्रीय परिवेश, पुरातात्विक आधार और मध्यकालीन पांडुलिपियां इसके पक्ष में हैं, भले ही बंगाल के बीरभूम में बाउलों का वार्षिक ‘जयदेव मेला’ प्रतिवर्ष हजारों पर्यटकों को आकृष्ट करता है. यह भी विचारणीय है कि जयदेव अपनी प्रसिद्ध राधा-माधव प्रतिमा की पूजा के अतिरिक्त, जिस कुशेश्वर शिव के मंदिर में आराधना और विश्रम करते थे, वह मिथिलांचल में स्थित है. जो भी हो, उनके ‘गीतगोविंदम्’ के संस्कृत पद ओडिशी नृत्य को शास्त्रीय नृत्य बनाने और भारतीय ललित कलाओं में काव्य-संगीत-नृत्य-चित्र कला को राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम और सौंदर्य से समृद्ध करने में प्रमुख कारक बने. विद्यापति ने जयदेव से प्रेरणा लेकर ही राधा-माधव के श्रृंगार-गीत ‘देसिल बयना’ मैथिली में लिखे और उनकी देखा-देखी भक्त कवियों ने ब्रज-अवधी आदि भाषाओं में पदों की रचना की.
यहां तक कि असमिया के श्रीमंत शंकरदेव ने भी विद्यापति का अनुसरण किया. ध्यान देने की बात यह है कि पूर्वी भारत मूलत: शाक्त संप्रदाय का केंद्र रहा है, जहां दक्षिण के आचार्यो द्वारा प्रवाहित वैष्णव भक्ति की धारा को प्रवाहित करना इन महाकवियों के संगीतबद्ध काव्य के वश की ही बात थी. विस्मित करनेवाली बात यह भी है कि भक्तिकाल के प्राय: सभी अग्रदूतों ने ईश्वर तक जाने के लिए पारंपरिक प्रस्तर-प्रतिमा पूजन से इतर मार्ग अपनाया. शंकरदेव ने गांवों में नामघर बना कर कीर्तन-भजन को प्रश्रय दिया. नानकदेव ने संतों की वाणी को ही ग्रंथ बना कर गुरुद्वारों में ‘गुरुग्रंथ साहब’ की प्रतिष्ठा की. चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथ पुरी में वर्षो रह कर श्रीकृष्ण के नाम-संकीर्तन के लिए हर स्थान को मंदिर की महिमा प्रदान की.
सांस्कृतिक दृष्टि से ओड़िशा और मिथिला में अन्योन्याश्रय संबंध है. जयदेव न होते, तो विद्यापति न होते और उदयनाचार्य न होते, तो विष्णु के अवतार भगवान जगन्नाथ का अस्तित्व ही खतरे में था. बौद्ध आचार्यो के नकारात्मक तर्को और एकांगी सिद्धांतों के आगे सनातनी पंडित परास्त हो रहे थे. तब उदयनाचार्य ने अपने नव्य न्याय के तर्को से सनातन धर्म को बचाया और कलिंग के राजधर्म के मदमत्त बौद्धभिक्षुओं की कुदृष्टि से जगन्नाथ मंदिर बचा रह गया. भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर विद्यापति के पद ‘भल हर भल हरि, भल तुअ कला. खन पित वसन, खनहि मृगछला’ के अनुरूप ही विष्णु और शिव एकरूप हैं.
अरसे बाद इस बार साहित्य अकादमी के सौजन्य से भुवनेश्वर जाने का अवसर मिला था, जिसका एक प्रयोजन वहां के प्रसिद्ध लिंगराज मंदिर जाना भी था. मुङो यह देख कर बहुत क्षोभ हुआ कि लिंगराज मंदिर के सारे स्थापत्य धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं. तीन दशक पहले इस मंदिर का ऐसा बाजारीकरण नहीं हुआ था कि सुरक्षा के नाम पर मोबाइल रखवाने का भी किराया अदा करना पड़े और पंडे लोग दर्शनार्थियों से 100 रुपये वसूल कर 50 रुपये के टिकट से गर्भगृह में प्रवेश करायें.
मेरे क्षुब्ध मन को शांति ‘पांथ निवास’ के पास स्थित उस छोटे-से मंदिर में मिली, जिसमें भगवान कृष्ण की वैसी ही आंखें थीं, जिनके कारण उन्हें ‘खंजन-नयन’ कहा गया; और सूर की गोपियां जिन आंखों पर मुग्ध होकर गा उठीं- ‘निरख सखी, ये खंजन आये.’ खंजन का दिख जाना बड़ा शुभ माना जाता है और आज वर्ष के प्रथम दिन मुङो खंजन-नयन के दर्शन हो रहे थे!

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