प्रदर्शन में शामिल राष्ट्राध्यक्षों और नागरिकों ने एक स्वर में कहा कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले सहन नहीं किये जाएंगे. इस ऐतिहासिक मार्च ने आतंकवाद के खिलाफ फिर से एक वैश्विक माहौल तैयार किया है. अब जरूरी है कि यह एकजुटता केवल भावनाओं का तात्कालिक उबाल न साबित हो. यह आशंका इसलिए, क्योंकि आतंक के खिलाफ युद्ध का इतिहास गवाह है कि ऐसी एकजुटता तभी सामने आती है, जब किसी विकसित देश में हमला होता है. साल 2013 में भारत आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित देशों की सूची में छठे पायदान पर था.
लेकिन, दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के संसद भवन पर हमला हो, या इसकी आर्थिक राजधानी को दहलाने की कोशिश, वैश्विक एकजुटता केवल शोक-संवेदना तक सीमित रही है. यहां तक कि पुख्ता सबूत के बावजूद संसद और मुंबई हमले के दोषी पड़ोसी देश में खुलेआम घूम रहे हैं. यह आतंकवाद के खिलाफ विकसित देशों के दोहरे रवैये को दर्शाता है. कभी अलकायदा और तालिबान को खाद-पानी देनेवाला अमेरिका जब खुद 9/11 की आग में झुलसा, तो आतंक के खिलाफ तथाकथित युद्ध का ऐलान हुआ. इसके बाद अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान पर हमले कर सद्दाम हुसैन और तालिबान को खत्म करने का दावा किया, लेकिन इन दोनों देशों में आतंकी संगठन आज भी प्रभावी हैं. आज दुनिया में आतंक का पर्याय बने आइएसआइएस के शुरुआती कदम भी कभी सऊदी अरब और तुर्की के इशारों पर बढ़े थे. जाहिर है, आतंकवाद के खिलाफ कोई भी एकजुटता तभी सार्थक हो सकती है, जब विकसित देश अपने दोहरे रवैये को त्याग कर एक ईमानदार पहल करेंगे. आतंकवाद के खिलाफ युद्ध और इसे शह देनेवाले राष्ट्रों के साथ मित्रता साथ-साथ नहीं चल सकती.