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हर कीमत पर जीत ही मूल्य है!

।। एमजे अकबर ।। (वरिष्ष्ठ पत्रकार हैं) – क्या सत्ता के निचले पायदानों पर बैठे लोग, चाहे वे किसी विभाग को संभाल रहे सेक्रेटरी हों या फाइलों की निगरानी कर रहे क्लर्क, घूस लेने से इनकार कर देते हैं! या क्या बिजनेस एक्जीक्यूटिव घूस की पेशकश करने से बाज आ जाते हैं! वाणिज्य और अंतरात्मा […]

।। एमजे अकबर ।।

(वरिष्ष्ठ पत्रकार हैं)

– क्या सत्ता के निचले पायदानों पर बैठे लोग, चाहे वे किसी विभाग को संभाल रहे सेक्रेटरी हों या फाइलों की निगरानी कर रहे क्लर्क, घूस लेने से इनकार कर देते हैं! या क्या बिजनेस एक्जीक्यूटिव घूस की पेशकश करने से बाज आ जाते हैं! वाणिज्य और अंतरात्मा के बीच चलनेवाले सतत संघर्ष में कौन जीतता है? अगर हम में से हर कोई छोटे-छोटे प्रलोभनों के सामने झुकने से इनकार कर दे, तो यह दुनिया एक छोटी सी आदर्श जगह हो जायेगी. –

इसके बारे में थोड़ा सोचिए. आपके पास वह वक्त है, जो एशेज श्रृंखला के पहले टेस्ट के तीसरे दिन इंग्लैंड के लिए बैटिंग करते वक्त स्टुअर्ट ब्रॉड के पास नहीं था. यह एक बेहद उत्तेजनापूर्ण मुकाबला था, जिसमें परिणाम आना तय था. एक बेहद दमदार अपील और अंपायर के फैसले के बीच के क्षण में ब्रॉड को ईमानदारी और मौकापरस्ती के बीच चुनाव करना था.

ब्रॉड के बल्ले ने गेंद को हल्के से छू दिया था और बॉल पहले स्लिप के क्षेत्ररक्षक के हाथों में चली गयी थी. उन्होंने वह महसूस किया, जिसे हर किसी ने देखा था, सिवाय अंपायरों के, जिन्हें दृष्टिदोष हो गया था. नैतिकता की मांग थी कि वे खुद क्रीज से रुखसत हो जायें. लेकिन उन्होंने पंचों द्वारा गलती किये जाने का इंतजार किया.

अगर आप अपनी आरामदेह कुर्सियों पर बैठ कर क्रिकेट का मजा उठानेवालों में से एक हैं, तो आपको अंतरात्मा को लेकर कोई भी बहस महज सैद्धांतिक मालूम पड़ेगी. लेकिन क्या यह किसी भी तरह से कम महत्व की है! क्योंकि यह बहस मूल्यों के संदर्भ में है. क्या सिर्फ जिंदा रहना और सफल होना ही जीवन की प्राथमिकताएं हैं!

जीवन की तरह ही क्रिकेट हमेशा सिर्फ स्याह या सफेद नहीं होता. ऐसी स्थितियां आती हैं, जब बल्लेबाज के पास गगनभेदी नाटकीय अपीलों के बीच मैदान पर टिके रहने का पूरा अधिकार होता है. मसलन एलबीडब्ल्यू के अधिकांश फैसलों में या फिर जब गेंद क्षेत्ररक्षक के हाथों में सफाई से न गयी हो, तब बल्लेबाज वास्तव में अनिश्चित की स्थिति में होता है.

तकनीक के सहारे तैयार की गयी तीसरे अंपायर की कल्पनाशील व्यवस्था कुहासे को काटने के लिए ही की गयी है. किसी जमाने में गरिमा क्रिकेट की मूल भावना में अनिवार्य मानी जाती थी. इतिहास में कोई भी असफल के रूप में दर्ज नहीं होना चाहता, लेकिन क्रिकेट में गरिमा और सम्मान के बगैर मिली सफलता को निचला दर्जा दिया जाता था.

जीवन के व्यापक क्षेत्र में गरिमा का महत्व था. हां, कभी-कभी यह जरूर होता था कि पैसे के सहारे कोई पुरस्कार तक पहुंच जाता था, क्योंकि पैसा हमेशा बोलता है. लेकिन पहले के जमाने में पैसा फुसफुसाहट में बात किया करता था. आज यह चिल्लाता है. अंतरात्मा की धीमी सी आवाज इसके शोर में खो जाती है.

1950 के दशक तक क्रिकेट में एक कुरूप वर्ग-विभेद था, जिसके तहत एमेच्योर क्लब क्रिकेट के सहारे मैदान में उतरते थे, तो पेशेवर एक पगडंडी का इस्तेमाल किया करते थे. एक भद्र पुरुष को खेलने के लिए पैसे लेना अपने सम्मान के खिलाफ लगता था, क्योंकि उसके पास पर्याप्त पैसा हुआ करता था.

कामगारों के बीच से आनेवाला पेशेवर अपनी नौकरी से एक हफ्ते की छुट्टी नहीं ले सकता था. लेकिन खेल के दौरान ईमानदारी को वर्गो में नहीं बांटा जा सकता था. हमारा दावा है कि हम ज्यादा समतावादी युग में रह रहे हैं, लेकिन हमने ‘पेशेवर’ को ‘अनैतिकता’ का पर्यायवाची बना दिया है. ब्रॉड को उनके ‘पेशेवर रवैये’ के कारण बरी कर दिया गया, कुछ इस तरह से जैसे गौरव किसी धर्मगुरु या उपदेशक का उपहासपूर्ण शगल हो!

इंग्लैंड के पूर्व टेस्ट कप्तान टॉनी ग्रेग इस कट्टरतावाद के उदारहरण थे. भारत में एक टेस्ट सीरीज के दौरान उस समय भारतीय कप्तान जीआर विश्वनाथ उनके ठीक उलट थे. एक बेहद शालीन और भद्र व्यक्ति. एक टेस्ट में जब इंग्लैंड की पारी लड़खड़ा रही थी, हर किसी को हैरत में डालते हुए विश्वनाथ ने अंपायर के फैसले को पलट कर ग्रेग को खेल जारी रखने को कहा. क्या यह वह पवित्र क्षण था, जब ग्रेग विचारों और आचरण में पवित्रता की ओर मुड़ गये? नहीं वे अपनी कट्टरता के प्रति वफादार बने रहे, जिसमें सिर्फ कामयाबी का महत्व है. शायद अकेले में वे विश्वनाथ के ‘मूर्ख’ होने पर हंसे भी हों. आज भी गिलक्रिस्ट और हासिम अमला जैसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने आउट होने पर क्रीज छोड़ने का फैसला किया.

तो क्या आप भी चल पड़ेंगे? यह सवाल क्रिकेट से कहीं बड़ा है. मंत्री, चाहे साधारण हों, या अतिविशिष्ट, मुख्य या प्रधान, भ्रष्टाचार उजागर हो जाने के बाद भी अपनी जगह से नहीं हिलते. तब भी नहीं जब अत्याचारी प्रशासन मिड डे मील से बच्चों की जान ले लेता है.

क्या सत्ता के निचले पायदानों पर बैठे लोग, चाहे वे किसी विभाग को संभाल रहे सेक्रेटरी हों या फाइलों की निगरानी कर रहे क्लर्क, घूस लेने से इनकार कर देते हैं! या क्या बिजनेस एक्जीक्यूटिव घूस की पेशकश करने से बाज आ जाते हैं! वाणिज्य और अंतरात्मा के बीच चलनेवाले सतत संघर्ष में कौन जीतता है? अगर हम में से हर कोई छोटे-छोटे प्रलोभनों के सामने झुकने से इनकार कर दे, तो यह दुनिया एक छोटी सी आदर्श जगह हो जायेगी.

समकालीन धर्म का पहला आदेश है,‘हर कोई जीतनेवाले से प्रेम करता है, किसी को इतना मूर्ख नहीं होना चाहिए कि वह पकड़ा जाये. कोई तीसरा उपदेश नहीं है. अगर स्टुअर्ट ब्रॉड कोई अदना सा खिलाड़ी होते, तो कोई बड़ी बात नहीं होती, लेकिन वह लाखों युवाओं के लिए रोल मॉडल भी हैं. अगर किसी भी तरीके से जीवित रहना नायकत्व की गारंटी ले सकता है, तो निश्चित ही पुरानी नैतिकता मूर्खतापूर्ण हैं.

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