आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
वर्ष 2002 से 2008 के बीच पहले
तीन वर्ष मुफ्ती सईद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे और फिर कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री रहे थे. पीडीपी को भाजपा के साथ ऐसा ही समझौता करना चाहिए.
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के परिणाम अजीब हैं. 87 सदस्यों वाले सदन में मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी ताकत है. सात निर्दलीय सदस्यों को छोड़ दें तो 12 सीटों वाली कांग्रेस सबसे छोटी पार्टी है. बीच में 25 सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी और 15 सीटों वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस हैं. मैं इस चुनावी नतीजे को अजीब इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि इसमें सरकार गठन की संभावनाएं अनेक हैं. बहुमत के लिए 44 का आंकड़ा इन गंठजोड़ों से जुटाया जा सकता है- भाजपा-पीडीपी, कुछ निर्दलीय सदस्यों के साथ भाजपा-नेशनल कॉन्फ्रेंस तथा कुछ निर्दलीय सदस्यों के साथ पीडीपी-नेशनल कॉन्फ्रेंस या कांग्रेस. ध्रुवीकरण की स्थिति के कारण राज्य में इतने विकल्पों का होना असाधारण स्थिति है. लेकिन हकीकत में, इतने सारे विकल्प नहीं हैं और घाटी की दो बड़ी पार्टियां- पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस- एक साथ सरकार में शामिल नहीं हो सकती हैं. अब यह भाजपा को ही तय करना होगा कि वह इनमें से किसके साथ गंठबंधन करना चाहती है.
राज्य के राजनीतिक परिदृश्य में पीडीपी और भाजपा विपरीत बिंदुओं पर खड़ी हैं. पीडीपी घाटी के मुसलिमों का प्रतिनिधित्व करती है, जिनमें बड़ी संख्या में अलगाववादी भावना रखनेवाले भी हैं. भाजपा जम्मू के हिंदुओं तथा उस राष्ट्रीय भावना का प्रतिनिधित्व करती है, जो कश्मीरियों को शेष भारत के साथ जोड़ना चाहते हैं. दोनों पार्टियों के मतदाता और प्रभाव-क्षेत्र बिल्कुल भिन्न हैं. पीडीपी का कोई भी विधायक हिंदू नहीं है और भाजपा के पास एक भी मुसलिम विधायक नहीं है. आश्चर्यजनकरूप से भाजपा घाटी में उतनी ‘अछूत’ नहीं है, जितनी वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उद्भव से पहले देश के अन्य हिस्सों में हुआ करती थी. फिलहाल राज्य में कोई सरकार नहीं बन पायी है और पार्टियां बेहतर सौदेबाजी के लिए कोशिश में लगी हुई हैं.
कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने स्वीकार किया है कि ‘अंकों के हिसाब से निश्चित विकल्प भाजपा का पीडीपी के साथ जाना है. 87 सदस्यीय सदन में इनकी कुल 53 सीटें होंगी, जिससे ऊपरी तौर पर एक स्थायी बहुमत सुनिश्चित होगा. मैं ‘ऊपरी तौर’ पर जोर दे रहा हूं, क्योंकि इस आंकड़े के पीछे यह तथ्य छुपा है कि दोनों दलों की नीतियों और इरादों में कोई साम्य नहीं है तथा धार्मिक और क्षेत्रीय आधारों पर विभाजन है’. अय्यर आगे कहते हैं कि ‘भाजपा ने अपनी कुल सीटें जम्मू में जीती हैं. कश्मीर में उसके 36 उम्मीदवारों में से 35 की जमानत तक जब्त हो गयी है. पीडीपी को जम्मू में सिर्फ दो सीटें मिली हैं, बाकी 26 सीटें उसने घाटी में जीती है. चुनाव प्रचार के दौरान आक्रामक बयानबाजी जम्मू-कश्मीर में शासन को लेकर दोनों पार्टियों के बीच की बड़ी खाई को परिलक्षित करता है’.
अय्यर का मानना है कि यह एक समस्या है, क्योंकि ‘भाजपा ने तब और पहले पीडीपी पर आतंकवाद के प्रति ‘नरम’ रुख रखने और ‘पत्थर फेंकनेवालों’ की संज्ञा से सामूहिक रूप से संबोधित किये जानेवाले प्रदर्शनकारियों के विचारों के प्रति झुकाव रखने का आरोप लगाया था. जम्मू और देश के अन्य हिस्सों में भाजपा स्वयं को एक बलवान पार्टी के रूप में प्रस्तुत करना पसंद करती है, जो आतंकवाद और घुसपैठ को किसी भी कीमत पर जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध है. जम्मू-कश्मीर सरकार में रहते हुए अगर भाजपा ने ‘नरम’ रुख दिखाया, तो इससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ परिवार नाराज हो जायेंगे तथा भाजपा जम्मू और देश के बाकी हिस्सों में काफी हद तक अपना जनाधार खो सकती है. लेकिन, अगर पीडीपी कड़ा रवैया अपनाती है, तो वह घाटी में हासिल की गयी अपनी ताजातरीन समर्थन से हाथ धो सकती है’. मुझे नहीं लगता है कि पीडीपी+नेशनल कॉन्फ्रेंस+कांग्रेस गंठबंधन संभव है.
रेडिफ की शीला भट्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार पीडीपी के साथ भाजपा की चल रही बातचीत में सबसे बड़ा अवरोध हिंदू मुख्यमंत्री बनाने की भाजपा की मांग है. भट्ट ने इस रिपोर्ट में बताया है कि ‘अनुभवी मुफ्ती सईद भाजपा के खेल को बखूबी समझते हैं, जिन्होंने, रिपोर्टो के अनुसार, भाजपा के एक नेता से कहा कि ‘अगर मैं आपके आदमी को सरकार के मुखिया के रूप में स्वीकार कर लूं, तो मैं घाटी में अपने लोगों को मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहूंगा’. इस पर भाजपा नेता ने जवाब दिया कि अगर मैंने आपकी बात मान ली, तो मैं पूरे देश में लोगों को चेहरा नहीं दिखा सकूंगा.’
अगर किसी को धार्मिक आधार पर मुख्यमंत्री चुने जाने पर आपत्ति है, तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा के पास इस पद के लिए कोई मुसलिम नहीं है. अगर राज्य में इनका गंठबंधन बनता है और मुख्यमंत्री का पद बारी-बारी से दोनों दलों के पास आना तय होता है, तो भाजपा का नेता आवश्यक रूप से हिंदू ही होगा.
मेरी राय में यह कोई खराब बात नहीं है और मैं यह समझता हूं कि दो अतिवादों के बीच साझेदारी अच्छी बात होगी और इससे दोनों के रुख में थोड़ी-सी नरमी आयेगी. अगर पीडीपी भाजपा के साथ साझेदारी करती है, तो वह राज्य के लिए अधिक सहायता हासिल करने के लिए गंठबंधन में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सकती है. दूसरी तरफ भाजपा उन लोगों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ा सकती है, जिन्हें अब भी यह भरोसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी ने अपना सांप्रदायिक रवैया पूरी तरह से छोड़ दिया है.
भारत के एकमात्र मुसलिम-बहुल राज्य में एक मुसलिम पार्टी के साथ बराबरी की साझेदारी उस पार्टी के लिए एक जबर्दस्त उपलब्धि होगी, जिसके धार्मिक रवैये को लेकर बहुत आलोचना होती रही है. हालांकि, विचारधारात्मक रूप से नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ गंठबंधन भाजपा के लिए आसान होगा, लेकिन वह उतना फायदेमंद नहीं होगा.
जहां तक बारी-बारी से मुख्यमंत्री बनाने का मसला है, तो राज्य में ऐसी साझेदारी का उदाहरण मौजूद है. वर्ष 2002 से 2008 के बीच (जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह वर्षो का होता है) पीडीपी ने कांग्रेस के साथ ऐसी साझेदारी की थी. पहले तीन वर्ष मुफ्ती सईद मुख्यमंत्री थे और फिर कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री रहे थे. पीडीपी को भाजपा के साथ ऐसा ही समझौता करना चाहिए.