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भौतिकता का मारा समाज

* खास पत्र ।। मीतू सिन्हा ।। (हजारीबाग) सुबह हुई, अखबार खोला. खबरें पढ़ीं- पति ने पत्नी को मार डाला, महिला ने दो बच्चों के साथ की खुदकुशी, युवा ने की आत्महत्या. आखिर इन खबरों के पीछे कारण क्या हैं? क्यों आज का युवा वर्ग इतना हताश है? क्यों वह अपने प्राण लेना चाहता है. […]

* खास पत्र

।। मीतू सिन्हा ।।

(हजारीबाग)

सुबह हुई, अखबार खोला. खबरें पढ़ीं- पति ने पत्नी को मार डाला, महिला ने दो बच्चों के साथ की खुदकुशी, युवा ने की आत्महत्या. आखिर इन खबरों के पीछे कारण क्या हैं? क्यों आज का युवा वर्ग इतना हताश है? क्यों वह अपने प्राण लेना चाहता है. शर्मिंदा होने के लिए तो कई कारण हैं, जैसे पारिवारिक तनाव, शिक्षा में असफलता या टूटते प्रेम संबंध. लेकिन, क्या इन्हीं कारणों की आड़ में हम अपनी जिम्मेदारी से भाग सकते हैं? क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, क्या हमें नहीं जानना चाहिए कि इतनी सारी मौतों का कारण क्या है?

कहीं ये आज का भौतिकतावाद तो नहीं, जो लोगों को हत्या/आत्महत्या जैसे जघन्य पाप के लिए प्रेरित कर रहा है. आज की बुनियादी आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान से आगे बढ़ चुकी हैं. मोबाइल जैसे उपकरण आज की बुनियादी आवश्यकता बन चुके हैं. पहले जो भी आत्महत्या की इक्का-दुक्का घटनाएं होती थीं, उनकी सूचना अखबार के माध्यम से मिलती थी. लेकिन, अब पूरे सूचना तंत्र में आत्महत्या की खबरें छायी रहती हैं.

बढ़ी हुई जरूरतें पूरी नहीं कर पाने की मजबूरी हताशा का रूप ले लेती है, जो परिणत होती है आत्महत्या में. इसके और भी भयावह परिणाम होते हैं- पत्नी की मांग पूरा न कर सकने की स्थिति में पति मांग के मूल को ही खत्म कर देना चाहता है, औरत अपने बच्चों की मांग पूरी नहीं कर पाने की स्थिति में उन्हें खत्म कर अपनी जीवनलीला भी समाप्त कर लेती है.

आखिर यह खेल कब तक चलेगा? यदि सरकार ने भौतिकतावाद को बढ़ावा दिया है, तो आमदनी बढ़ाने का भी जरिया बनाये. भौतिकता को विकास का आधार माननेवाली सरकार को इसकी हद भी तय करनी होगी, क्योंकि ‘अति सर्वत्र वजर्येत्’ का सूत्र सार्वभौमिक है.

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