प्राचीन संस्कृति की गरिमा से मंडित भारत में आज यदि किसी की सर्वाधिक दुर्गति हो रही है, तो वह है प्रकृति. प्रकृति पर विजय प्राप्ति के सपने को साकार करने के लिए मनुष्य ने कई आविष्कार किये और इस घमंड में चूर है कि प्रकृति उसके वश में है, लेकिन वह भूल गया कि मूक दिखायी देनेवाली प्रकृति की वक्र–दृष्टि सर्वनाश का कारण बन सकती है.
आज जिस तरह चारों ओर पर्यावरण–प्रदूषण और प्राकृतिक असंतुलन का दौर चल रहा है, उसी तरह रोगों–बीमारियों में वृद्धि होती जा रही है. वनों की अंधाधुंध कटाई की वजह से भू–स्खलन, भू–क्षरण, बाढ़, बेमौसम बरसात और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. प्रकृति से छेड़छाड़ की वजह से खुद मनुष्य का दम घुटता जा रहा है. औद्योगिक प्रगति और प्रकृति से दूर होते जाने के कारण सांस लेने के लिए शुद्ध वायु का भी अभाव हो गया है. प्रकृति भी अद्भुत और विस्मयकारी है. प्रसन्न होने पर यह आनंद का स्नेत प्रवाहित करती है, तो कुपित होने पर विनाश का तांडव भी करती है, जिसकी वजह से वजह से त्रहिमाम मच जाता है. अब सोचना हमें है.
।। आस्था ।।
(बरियातू, रांची)