तात्कालिक जरूरतों का दबाव द्विपक्षीय संबंधों को दूरगामी नजरिये से देखने में बाधक होता है. ऐसे में आशंका होती है कि भेंट के नतीजे बहुत उत्साहवर्धक नहीं होंगे. लेकिन तात्कालिक जरूरतों से प्रभावित होने के बावजूद रूसी राष्ट्रपति पुतिन और भारतीय प्रधानमंत्री मोदी की भेंट ने इस आशंका को निमरूल किया है. शीर्ष नेताओं की बातचीत के नतीजे दोनों देशों के लिए फायदेमंद हैं. रूस ने यूक्रेन के प्रति इस साल आक्रामक रुख अपनाया. इस वजह से यूक्रेन में अपने हितों के कारण यूरोपीय संघ के देशों तथा अमेरिका ने रूस पर प्रतिबंध लगाया है.
हालांकि शुरुआती तौर पर प्रतिबंधों की शक्ल आर्थिक थी, लेकिन 1991 से यूक्रेन के एक हिस्से के रूप में दर्ज क्रीमिया ने जब जनमत संग्रह के जरिये रूस में विलय का फैसला किया, तब से पश्चिमी मुल्कों की त्यौरियां रूस पर कुछ ज्यादा ही चढ़ गयीं. रूसी राजनयिकों और व्यावसायियों के लिए यूरोपीय संघ और अमेरिका के दरवाजे बंद हो गये.
यूरोप को प्राकृतिक गैस और तेल के निर्यात के जरिये अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में लगे रूस को इससे बड़ा धक्का लगा. उसके सामने विकल्प यही था कि वह विश्व की किसी उभरती अर्थव्यवस्था से जुड़े और पश्चिमी देशों को बताये कि उसकी आर्थिक बेहतरी के रास्ते बंद नहीं हुए हैं. भारत के सामने इससे अलग किस्म की चुनौती थी.
भारत अपनी रक्षा जरूरतों के लिए अब भी रूस पर निर्भर है और भारत की महत्वाकांक्षा रक्षा-उत्पादों के स्व-निर्माण की है. भारत को नाभिकीय ऊर्जा के विस्तार के क्षेत्र में भी अन्य देशों से विशेष मदद नहीं मिल रही है. दोनों देशों ने तात्कालिकता के इसी दबाव में रक्षा-उत्पादों के उत्पादन, तेल के निर्यात और नाभिकीय ऊर्जा के विस्तार के मुद्दे पर आपसी करार किये हैं. क्रीमिया के प्रधानमंत्री को साथ लाकर पुतिन ने पश्चिमी मुल्कों के राजनीतिक प्रतिबंध की धार को कुंद करने में कामयाबी पायी है, तो भारत ने लचीला रुख अपना कर उन्हें यह संदेश दिया है कि ऊर्जा और रक्षा के मामले में वह अब भी सबसे ज्यादा यकीन रूस का करता है और पश्चिमी देश यह उम्मीद न करें कि क्रीमिया मामले पर भारत जापान की तरह रूस पर प्रतिबंध से सहमति जताते हुए अपने राष्ट्रीय हित के फैसले करेगा.