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राज्य के विकास की तीसरी परत

अधिकतर राजनेताओं की पृष्ठभूमि इस तरह की नहीं होती है कि वे साहित्य-कला को ठीक से समझ भी सकें. इसलिए संस्कृति को वे राजकीय उत्सवों में बंबइया कलाकारों के नाच-गान तक सीमित कर देते हैं किसी भी राज्य का विकास तब तक अधूरा है, जब तक उसके सृजनधर्मा रचनाकारों और लोक कलाकारों के संरक्षण-संवर्धन के […]

अधिकतर राजनेताओं की पृष्ठभूमि इस तरह की नहीं होती है कि वे साहित्य-कला को ठीक से समझ भी सकें. इसलिए संस्कृति को वे राजकीय उत्सवों में बंबइया कलाकारों के नाच-गान तक सीमित कर देते हैं
किसी भी राज्य का विकास तब तक अधूरा है, जब तक उसके सृजनधर्मा रचनाकारों और लोक कलाकारों के संरक्षण-संवर्धन के लिए योजनाबद्ध व्यवस्था नहीं होती. यह श्रेय देश के पुराने राजे-रजवाड़ों को ही जाता है कि उन्होंने वैचारिक और कलात्मक शक्तियों को विकसित होने के लिए पूरा अवसर दिया.

सामान्यत: हर शासक अपने राज्य में वैचारिक शक्तियों को प्रोत्साहित नहीं करना चाहता, क्योंकि इससे उसकी निरंकुशता में खलल पड़ता है. अब वे राजे-रजवाड़े भी नहीं रहे, जिनके राज्याश्रय में कालिदास और विद्यापति जैसी साहित्यिक विभूतियां पलें. राजाओं को भर हीक गाली देनेवाले ‘प्रगतिशील’ बंधु प्राय: यह भूल जाते हैं कि हमारे सारे आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक वैभव के उत्कर्ष में उन पराक्रमी और संस्कारी राजाओं का विशेष योगदान है, जिन्हें औपनिवेशिक सोच से लिखे-लिखाये गये इतिहास में बड़ी चालाकी से किनारे कर दिया गया है.

ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, पिछली सदी के रजवाड़ों ने ही भारतीय भाषाओं और साहित्य-संगीत-कला के संवर्धन के लिए जितना काम किया, क्या उसका कोई लेखा-जोखा गंभीरता से किया गया है? वे अपने साहित्यकारों और कलाकारों पर जितना खर्च करते थे, उसका दो प्रतिशत भी भारतीय गणतंत्र की राज्य सरकारें नहीं करती हैं. इस मद में जो दो-चार बूंद धन गैर-योजनाबद्ध तरीके से प्रवाहित किया जाता है, वह भी राजनेताओं और नौकरशाहों की विलासिता की भेंट चढ़ जाती है. अधिकतर सार्वजनिक उपक्रमों में राजभाषा विभाग का धन हास्य (अकवि) सम्मेलनों में चला जाता है, क्योंकि बड़े साहबों को अपने बीबी-बच्चों का मनोरंजन करना है, न कि उस धन से भाषा-साहित्य के सर्जकों के घरों में चूल्हे जलाना है.

सरकारों के वार्षिक बजट में जन-गण-मन को प्रभावित करनेवाले इन तत्वों की संपुष्टि के लिए कोई प्रावधान नहीं होता. यह माना कि विदेशी शासकों ने अपने बजट में इसे एक मद के रूप में नहीं रखा, क्योंकि उन्हें इसकी परवाह नहीं थी. मगर नेहरू और उनके बाद की सरकारें तो स्वदेशी थीं! उन्होने क्यों आंख मूंद कर विदेशी शासन पद्धति का अंधानुसरण किया? छोटे-मोटे अपवादों को छोड़ दें, तो किसी भी राजा के विरुद्ध कभी कोई जनक्रांति नहीं हुई. देश आजाद होने के बाद भी रियासतों ने सरदार पटेल के आह्वान पर स्वत: अपनी अस्मिता को वृहत्तर राष्ट्रीयता की वेदी पर भेंट चढ़ा दी. इसके बाद भी अघोषित राजा-प्रजा संबंध तब भी था, आज भी है. हमने कभी यह सोचने का कष्ट नहीं किया कि वे कौन-से तत्व थे, जो राजा और उसकी प्रजा के बीच सौमनस्य-पूर्ण रिश्ता बनाये रखने में निर्णायक भूमिका निभाते थे! वे तत्व ये ही रचनाकार और कलाकार थे, जो जनता के बीच राजा के हर संकल्प को सही परिप्रेक्ष्य में रखते थे. जनता का इन घटकों पर पूरा विश्वास था और इसलिए कहीं कोई गलतफहमी की गुंजाइश नहीं रहती थी. यही कारण था कि युद्ध की स्थिति बनने पर राजा आगे-आगे चलता था, तो उसके पीछे-पीछे पूरी जनता होती थी.

आज शासन जिन मीडिया-प्रसारित विज्ञापनों के माध्यम से जनता तक अपने संकल्पों-प्रकल्पों को ले जाता है, उनको सामान्य जन झूठ का पुलिंदा मानता है. उस माध्यम से किसी प्रकल्प को जनाधार नहीं मिल सकता. इसके बजाय, यदि शासन अपने साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों व लोक कलाकारों जैसे जीवंत माध्यमों से अपनी बात जनता तक पहुंचाना चाहे, तो उसे ठोस जन-समर्थन मिल सकता है. मुङो नहीं लगता कि हिंदीभाषी राज्यों में अपने साहित्यकारों और कलाकारों के स्थायी भरण-पोषण के लिए कभी कोई प्रयत्न हुआ हो. जिस राज्य का यह सृष्टावर्ग भूखा-प्यासा है, उसका परिवार सामान्य सामाजिक सुरक्षा से वंचित है, उस राज्य की सरकार विकास और सुशासन की कितनी भी ढोल पीट ले, सब बेकार ही रहेगा. इस पर राज्य सरकारें आत्म-परीक्षण कर सकती हैं. साहित्य और कला के साधकों की उपेक्षा कर समाज का पोषण उसी तरह है, जैसे सिर को छोड़ कर पूरे धड़ की देखभाल की जाये. विकास की यह तीसरी परत है, जिसे देख कर ही किसी भी राज्य या समाज के वास्तविक विकास का जायजा लिया जा सकता है.

केंद्र से विकास का जो फॉमरूला प्रचारित किया जा रहा है, उसमें सड़क-बिजली-पानी और उनको सोखनेवाले बड़े-बड़े उद्योगों की ही प्रधानता है. मैं देश भर में घूमता रहता हूं और तटस्थ होकर हर वर्ग की अभिव्यक्ति को रेखांकित करता रहता हूं. मुङो यह कहने में कोई हिचक नहीं कि वर्तमान केंद्र सरकार से देश के साहित्यकारों और कलाकारों का रिश्ता अभी तक नहीं जुड़ पाया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काशी के जन-प्रतिनिधि हैं. उन्हें मालूम है कि काशी विश्वनाथ की सेवा तभी स्वीकृत होती है, जब सर्वप्रथम नगर के द्वारपाल काल-भैरव को संतुष्ट किया जाये.

इस देश का काल-भैरव साहित्यकार वर्ग है, जो असंतुष्ट है. और तब से है, जबसे आश्रय-विहीन है. उसे असंतुष्ट रख कर कोई शासन जनता का सहज प्रेम स्थायी रूप से नहीं पा सकता. सत्ता के मद में लोग साहित्यकारों-कलाकारों को बहुत अकिंचन प्राणी मानते हैं. मोदी सरकार को इस पर भी चिंतन करना चाहिए कि उस वर्ग को कैसे प्रश्रय देकर स्वच्छंद विचारों को पनपने का अवसर विकसित किया जाये. स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि दरिद्र-नारायण अपनी सेवा कराने आपके पास आयेंगे, ऐसी अपेक्षा मत करो. तुम स्वयं उनके पास जाओ. इसी तरह साहित्यकारों से अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे सरकार के पास जायें. सरकार को खुद उनके पास जाकर सेवा करना होगा.

इसमें कोई संदेह नहीं कि रोटी-कपड़ा-मकान की व्यवस्था किसी भी शासन की पहली शर्त है, मगर वह आखिरी शर्त नहीं. उसकी दूसरी शर्त होनी चाहिए- लोगों के लिए उनके भविष्य की सुरक्षा. जिन प्राकृतिक संसाधनों का हम आज उपयोग कर रहे हैं, वे आनेवाली पीढ़ियों को भी उपलब्ध हों, यह सुनिश्चय राजकीय प्रबंध की दूसरी शर्त होनी चाहिए. तीसरी शर्त है उस राज्य की साहित्य-संस्कृति और कला का समुचित विकास. देश की सरकारें इस मुद्दे पर बहुत कम ध्यान देती हैं. लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित अधिकतर राजनेताओं की पृष्ठभूमि इस तरह की नहीं रहती है कि वे इन्हें ठीक से समझ भी सकें. इसलिए संस्कृति को वे राजकीय उत्सवों में बंबइया कलाकारों के नाच-गान तक सीमित कर देते हैं और साहित्य को दो-चार चाटुकार विदूषकों को शाल-माला पहना कर निबटा देते हैं. अभी वस्तुस्थिति यही है कि जो कला को जानते-समझते हैं, वे कलाकार को प्रणाम करते हैं और जो कला को नहीं जानते, उन्हें कलाकार प्रणाम करते हैं.
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
buddhinathji@gmail.com

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