।।अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
अच्छा होता कि राहत पर राजनीति न होती. मगर सोचने भर से अच्छा क्या होता है. तब तो उत्तराखंड में आपदा भी नहीं आती. लेकिन वहां प्रकृति की नाराजगी या मानवनिर्मित हादसे के चलते राहत और बचाव की जरूरत इतने बड़े पैमाने पर आ गयी कि हादसा बीतने के पखवाड़े भर बाद तक न तो पूरी तरह पर्यटक निकाले जा सके हैं, न मृतकों का संस्कार हो पाया है. न मलबा हटा कर केदारनाथ मंदिर में पूजा शुरू हुई है और न ही स्थानीयों के दुख-दर्द की खबर ली जा सकी है. अब एक राजनीति यह शुरू हुई है कि श्मशान को ही घर बनाने वाले महादेव के मंदिर की सफाई के बगैर वहां उनकी पूजा-अर्चना की जा सकती है या नहीं. कहीं न कहीं यह शंकराचार्य स्वरूपानंदजी और मंदिर के महारावल की सत्ता की टकराहट भी है. रावल ने उखीमठ में पूजा शुरू भी करा दी थी. शायद वे शिवलिंग को हटाने की बात भी कर रहे थे. ये सभी मसले विवादास्पद हैं. इनमें बहुत मनमाने ढंग से कुछ निर्णय लेने से गड़बड़ भी हो सकती है.
इसी में भाजपा नेता उमा भारती किसी स्थानीय देवी का स्थान किसी व्यावसायिक प्रोजेक्ट के चलते खिसकाये जाने से इस आपदा का रिश्ता जोड़ रही हैं. और इसे सिर्फ अंधविश्वास कहने से काम नहीं चलेगा. इन मसलों की जड़ में जायेंगे तो मौजूदा विकास नीति, उत्तराखंड की प्राकृतिक संपदा की अंधाधुंध लूट और धर्म व आस्था के नाम पर उसकी शीर्ष संस्थाओं में बैठे लोगों द्वारा मनमाने ढंग से काम करने जैसे बृहत् और जटिल सवालों पर उलङोंगे. ये विकास और पर्यावरण तथा परंपरा और आधुनिकता में टकराव जैसी बहसों में भी उलझा देंगे-रावल स्थानीय ब्राrाण की जगह महाराष्ट्र के ही होंगे और अन्य धामों पर अलग-अलग क्षेत्र के लोग. यह व्यवस्था देश को जोड़ने का सूत्र देती है. गौरी को बेटी और महादेव को शिव मान कर उनके घर अर्थात केदारनाथ में एक रात भी नहीं रुकने की परंपरा स्थानीय प्रकृति से किस कदर मेल खानेवाली है, यह सोच कर हैरानी होती है.
यह सूची भी बहुत बड़ी है. पर जो धर्म, परंपरा और इन सबके ऊपर शासन और राजनीति को चलानेवाले हैं, उनमें इन बातों की समझ व संवेदनशीलता दिखने की जगह ठीक उलटी प्रवृत्ति दिखायी दे रही है. राज्य सरकार इतनी बड़ी आपदा को संभालने और लोगों को मदद करने की स्थिति में तो नहीं ही थी, चेतावनी के बाद भी भी कुछ खास तैयारी नहीं की थी. आज पखवाड़े भर बाद उसकी कमजोरियां और ज्यादा सामने आ गयी हैं. अब इन कमजोरियों को भरा जाये, इसके लिए जरूरी है कि उनको बताया जाये, यह तो स्वाभाविक चीज है.
थोड़ा आगे बढ़ कर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग करके मामले को थोड़ा और राजनीतिक रंग दिया, तब भी लगा कि मुख्य विपक्ष की भाषा ऐसी हो सकती है और इसमें एक नया सुझाव भी था जिसे कोई कारगर तो कोई बेकार मान सकता था. पर जब ‘पूरी तैयारी’ के साथ नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के हवाई सर्वेक्षण के लगभग साथ ही देहरादून पहुंचे, तो राहत और बचाव की जगह इसकी राजनीति को ऊपर आने में वक्त नहीं लगा. मोदी अपने साथ लगभग आधा दर्जन बड़े अधिकारियों को ले आये थे, और उन्होंने बड़ी शान से यह बताया भी कि ये लोग गुजरात के फंसे लोगों को बाहर निकाल ले जाएंगे. तभी कुछ मौसम की मेहरबानी के चलते और अगले दिन गृह मंत्री के आदेश के चलते उनको हेलीकॉप्टर से आगे नहीं जाने दिया गया. वीआइपी मूवमेंट के चलते राहत और बचाव कार्य में बाधा का हवाला दिया गया. यह फैसला उचित-अनुचित हो सकता था, पर इसने मोदी की तैयार टीम को मसाला दे दिया.
एक ओर दो करोड़ रुपये दान देने और मंदिर के पुनर्निर्माण का जिम्मा गुजरात को देने की मांग करने की बात आयी, दूसरी ओर कांग्रेस के डरने व इजाजत में पक्षपात करने का शोर मचा. उसी में एक बड़े अंगरेजी अखबार में खबर छपी कि किस तरह गुजरात के अधिकारियों ने थोड़े से इनोवा कारों, एसी बसों और फिर चार्टर्ड विमानों से उत्तराखंड में फंसे 15 हजार गुजरातियों को बाहर निकाल कर अहमदाबाद पहुंचा दिया. अब दान कम देकर ज्यादा श्रेय लेने और लगभग रैम्बो के अंदाज में अपने लोगों को निकालने का दावा उल्टा पड़ने लगा. दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसियों के लिए तो यह मोदी को धुनने का हथियार बन गया. जवाब में भाजपा प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी इस तथ्य को सामने ले आयीं कि मुल्क किस संकट में है और राहुल गांधी विदेश भ्रमण कर रहे हैं. इससे जुबानी जंग पूरे शबाब पर आ गया. असल में मीनाक्षी अपनी ब्रीफ में ही काम कर रही थीं- उनको अगले हर मामले को राहुल बनाम मोदी बनाने की रणनीति के हिसाब से ही काम करना था. यहां वे इस काम में सफल रहीं, पर यह मौका गलत हो गया. यहां कायदे से तो बचाव और राहत में आगे होकर स्कोर बनाना था. जल्दी ही भाजपा के अंदर से और बचे-खुचे एनडीए के अंदर से भी आलोचना के सुर आये. शिवसेना ने अपने मुखपत्र में लिखा कि सिर्फ गुजरातियों की चिंता करके मोदी राष्ट्रीय राजनीति में कैसे चलेंगे. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंदिर पुनर्निर्माण कर शिवजी की सेवा करने से ज्यादा जरूरी जीवित बचे महादेवों को बाहर निकालना और बचाना बताया. फिर भाजपा की ओर से रैम्बो का दावा न करने, नरेंद्र मोदी की तरफ से दान की रकम बढ़ाने जैसे कई भूल सुधार हुए. पर उसे ज्यादा लाभ विदेशी दौरे से लौटे राहुल गांधी को उत्तराखंड जाने और विमान उतारने की इजाजत देने से मिला.
इसमें केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे का दोमुंहापन सामने आया. बाद में कांग्रेसियों ने हालत बदलने का तर्क दिया, तब तक उसके पूर्व मंत्री और तेदेपा के सांसद ने आंध्र के फंसे लोगों को वापस ले जाने के लिए हवाई टिकट कटाने के सवाल पर सार्वजनिक रूप से मारपीट करके सारा गुड़ गोबर कर लिया.
हर आपदा के समय चूकें दिखती हैं, राहत की राजनीति दिखती है. कई जमातें राहत के माध्यम से ही राजनीति और समाज सेवा के एनजीओवादी धंधे में जम गयी हैं. संघ सिर्फ दंगा कराने के लिए बदनाम नहीं है, उसके लोग मुश्किल वक्त पर साथ खड़े भी होते रहे हैं. पर इस बार राजनीति सब पर हावी हुई है तो इसने न सिर्फ राहत और बचाव को प्रभावित किया है, बल्कि आगे के लिए बहुत गलत रिवाज शुरू हो सकता है. यह पहली बार हुआ है कि राज्य सरकारें मदद के लिए आगे आयीं न आयीं, पर अपने लोगों के खेल के लिए आगे आ गयीं. पहले दान में गुप्त दान का महात्म्य ज्यादा माना जाता था, फिर लोग, संस्थाएं और सरकारें यश की कामना से मदद करने लगीं, पर इस बार ‘मदद कम करो, उसका शोर ज्यादा मचाओ’ का चलन शुरू हो गया है. जब राहत और पुनर्निर्माण स्थानीय सरकार की जिम्मेवारी होती है तो फिर मंदिर निर्माण और राहत में अपनी थैली दिखाने का खेल क्यों शुरू हुआ? जिन सवालों की चर्चा पहले की गयी है वे निश्चित रूप से बड़े हैं, पर बेमतलब उठे बाद के मसले भी कम बड़े सवाल नहीं हैं. अगर कर्ताधर्ता का यह हाल रहेगा, तो बाकी लोग क्या करेंगे!