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बच्चों के हित में नये काम

।। कैलाश सत्यार्थी ।।– हाल में, उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला देकर गुमशुदा बच्चों तथा उनके माता-पिताओं के जीवन में एक नयी आशा जगायी है. ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की एक याचिका पर दिये गए इस ऐतिहासिक फैसले में सभी राज्य सरकारों और केंद्र को आदेश दिया गया है कि गुमशुदगी के प्रत्येक मामले को […]

।। कैलाश सत्यार्थी ।।
– हाल में, उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला देकर गुमशुदा बच्चों तथा उनके माता-पिताओं के जीवन में एक नयी आशा जगायी है. ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की एक याचिका पर दिये गए इस ऐतिहासिक फैसले में सभी राज्य सरकारों और केंद्र को आदेश दिया गया है कि गुमशुदगी के प्रत्येक मामले को संभावित अपराध मानते हुए प्राथमिकी दर्ज की जाये. 2008 से 2010 तक गुमशुदा हुए 1,17,000 बच्चों के मामलों में मात्र 16,000 प्राथमिकी दर्ज हुई थी. –

पिछले छह महीनों में बच्चों के अधिकार और सुरक्षा से संबंधित तीन बड़े नीतिगत काम हुए हैं. हालांकि मुख्यधारा के मीडिया ने इन्हें कोई खास स्थान नहीं दिया. पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय ने गुमशुदा बच्चों के संदर्भ में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. बच्चों की गुमशुदगी पर देश में अब तक कोई कानून नहीं था, किन्तु न्यायालय ने गुमशुदगी को पारिभाषित करते हुए इसे रोकने के लिए कठोर कदम उठाने के आदेश दिये हैं.

इससे लगभग एक महीने पहले, अप्रैल में आपराधिक न्याय कानून में किये गये संशोधन में न केवल मानव तथा बाल तस्करी को विस्तार से पारिभाषित किया गया, बल्कि इस अपराध के लिए कठोर दंड के प्रावधान भी शामिल किये गये. इससे पूर्व पिछले 14 नवंबर को बाल यौन अपराध रोक-थाम कानून बनाया गया, जिसके तहत बच्चों के साथ होने वाले सभी प्रकार के उत्पीड़न को पारिभाषित करते हुए अलग-अलग अपराधों के लिए कठोर सजा के प्रावधान रखे गये हैं.

यहां यह बता देना जरूरी है कि इनमें से एक भी काम सरकार की अपनी पहल पर नहीं हुआ. बल्कि सरकार ने तो अपने तरीके से अड़ंगे ही डाले. प्रत्येक के पीछे जन आंदोलनों तथा संघर्षशील सामाजिक संगठनों द्वारा लगाया गया एड़ी-चोटी का जोर था. ये सभी नीतिगत परिवर्तन एक-दूसरे से जुड़े हैं. बच्चों की गुमशुदगी, बाल तस्करी तथा उनका यौन शोषण अलग-अलग करके नहीं देखे जा सकते.

कुछ ही साल पहले केंद्र सरकार और यूनीसेफ की ओर से भारत के बच्चों के साथ हो रहे यौन उत्पीड़न पर एक चौंकानेवाला अध्ययन जारी किया गया था. इसके अनुसार, देश के 53 फीसदी बच्चे किसी न किसी रूप में यौन शोषण के शिकार होते हैं. दिल्ली की ‘गुड़िया’ के साथ हुई पाशिवक घटना ने समाज, पुलिस और सरकार की संवेदनहीनता, आपराधिक निकम्मेपन, रिश्वतखोरी व घटिया राजनीति को भी उजागर किया था. माता-पिता द्वारा बच्ची की गुमशुदगी की शिकायत पर तत्काल कार्रवाई और जांच की बात तो छोड़िए, छह घंटे तक प्राथमिकी ही नहीं लिखी गयी थी. गुड़िया को पुलिस ने नहीं ढूंढ़ा, वह तो इत्तफाकन ही मिल गयी.

बात अकेली गुड़िया की नहीं, हजारों मासूम बच्चों के मामलों में यौन शोषण, बलात्कार, बंधुआ मजदूरी, जबरिया भिखमंगई, अंग व्यापार जैसे अनेक अपराधों की शुरुआत गुमशुदगी से होती है. देश में हर घंटे 11 बच्चों की गुमशुदगी, बच्चों और उनके परिजनों के साथ एक घिनौना अपराध है. गुमशुदा बच्चों में लगभग आधों का तो कभी पता ही नहीं चल पाता है. इनमें अधिकतर झुग्गी-बस्तियों, विस्थापितों, रोजगार की तलाश में दूर-दराज के गांवों से शहरों में आ बसे परिवारों, छोटे कस्बों और गरीब व कमजोर तबकों के बच्चे होते हैं.

चूंकि ऐसे लोगों की कोई ऊंची पहुंच या आवाज नहीं होती, इसलिए पुलिस, मीडिया और यहां तक कि पड़ोसी भी उनको कोई तवज्जो नहीं देते. पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने के बजाय वे लोग अपने बच्चे के गुमशुदा होने के कई घंटों अथवा एक-दो दिन बाद तक स्वयं ही खोज-बीन में लगे रहते हैं. अगर समाज और पुलिस की मुश्तैदी से बच्चों की चोरी रोकी जा सके तो ऐसे अनेकों अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है.

हाल में, उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला देकर गुमशुदा बच्चों तथा उनके माता-पिताओं के जीवन में एक नयी आशा जगायी है. ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की एक याचिका पर दिये गए इस ऐतिहासिक फैसले में सभी राज्य सरकारों और केंद्र को आदेश दिया गया है कि गुमशुदगी के प्रत्येक मामले को संभावित अपराध मानते हुए प्राथमिकी दर्ज की जाये. अभी जो कानून हैं, वो सिर्फ अपहरण के मामले में हैं, जिसके अंतर्गत शिकायतकर्ता को किसी पर अपने बच्चे के अपहरण का शक व्यक्त करना पड़ता है. तभी प्राथमिकी दर्ज होती है.

अपरिचित लोगों द्वारा ट्रैफिकिंग के लिए चुराये गये बच्चों के मामले में मां-बाप आखिर शक करें भी, तो किस पर! लिहाजा पुलिस में उनकी प्राथमिकी तक दर्ज नहीं होती. यही वजह है कि सरकारी आंकड़ों में 2008 से 2010 तक गुमशुदा हुए 1,17,000 बच्चों के मामलों में मात्र 16,000 प्राथमिकी दर्ज हो सकीं.

न्यायालय ने 2009 से अब तक गुम हुए प्रत्येक बच्चे के मामले में एफआइआर दर्ज कर एक महीने के अंदर जांच-पड़ताल शुरू करने का आदेश दिया. सरकारी रिकॉर्ड के ही मुताबिक, 2009 से 2011 के दो वर्षो में 75,808 गुमशुदगियों की एफआइआर दर्ज करनी पड़ेंगी. हम जैसे कार्यकर्ता लगातार यह आवाज उठाते रहे हैं कि बच्चों की गुमशुदगी को एक संगठित अपराध की तरह देखा जाना चाहिए. अगर कोई बच्चा कई दिनों, महीनों व सालों से गायब है, तो कहीं न कहीं उसे जिंदा रखने के लिए भोजन-पानी का प्रबंध जरूर किया जाता होगा.

दरअसल, लापता होनेवाले बच्चे, बाल तस्करी के शिकार होते हैं. अपराधी गिरोह कुछ बस्तियों को चिह्न्ति करके बच्चे चुराते हैं और उन्हें दूसरे अपराधियों को बेच देते हैं अथवा अपने ही अन्य साथियों के पास सैकड़ों मील दूर कहीं पहुंचा देते हैं. जोर-जबरदस्ती, मार-पीट, नशे की दवाइयां आदि देकर इन बच्चों को बाल वेश्यावृत्ति, बंधुआ मजदूरी, गुलामी, अपाहिज बना कर भीख मंगवाने, बाल विवाह कराने, शरीर के विभिन्न अंगों की बिक्री जैसे कामों में धकेल दिया जाता है.

कुछ दिनों पूर्व हमारे प्रयास से छुड़ाये गये 11 वर्षीय संतोष (बदला हुआ नाम) ने बताया कि उसे कई-कई बार बेचा गया. उससे कई सालों तक खेतों में बंधुआ मजदूरी करायी गयी थी. मुक्त हुए एक अन्य बच्चे को सर्कस में बंधुआ रखा गया था. कुछ वर्ष पूर्व दक्षिणी दिल्ली में स्कूल से लौट रही दो छात्राओं को गायब कर दिया गया था.

इन्हें कई वर्ष बाद राजस्थान के अलवर जिले के एक गांव से छुड़वाया गया. उनसे वहां वेश्यावृत्ति करवायी जाती थी. इसी तरह जोधपुर के कुछ गांवों से चुराये गये बच्चों से दिल्ली में एक गिरोह द्वारा जबरिया भीख मंगवायी जा रही थी. इसी परिप्रेक्ष्य में देश की सबसे बड़ी अदालत का यह फैसला मील का पत्थर साबित हो सकता है. इस फैसले में कहा गया है कि प्रत्येक पुलिस थाने में कम से कम एक प्रशिक्षित पुलिस अधिकारी नियुक्त किया जाये, जो बाल कल्याण अधिकारी के तौर पर बच्चों से संबंधित अपराधों की जांच-पड़ताल करेगा.

इसके अलावा हर थाने पर राष्ट्रीय विधिक सहायता प्राधिकरण की ओर से कम से कम एक ‘पारा विधिक स्वयंसेवी’ रखा जायेगा, जो बच्चों की गुमशुदगी तथा बच्चों पर हो रहे अन्य अपराधों की शिकायतों पर होनेवाली कार्रवाई की निगरानी करेगा. गुमशुदा बच्चों की खोज-बीन करने और वापस लौटे बच्चों के मामलों में एक मानक प्रक्रिया संहिता राष्ट्रीय स्तर पर लागू की जायेगी. इसके अतिरिक्त बच्चों से संबंधित महकमों और संस्थानों, जैसे बाल कल्याण समिति, विशेष पुलिस दस्तों, सभी पुलिस थानों, किशोर न्याय मंडलों, जिला बाल संरक्षण इकाइयों, राज्य स्तरीय बाल संरक्षण यूनिटों आदि के बीच एक कंप्यूटरीकृत नेटवर्क स्थापित किया जायेगा. साथ ही केंद्रीय स्तर पर एक डाटा बैंक बनाया जायेगा.

सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को दो अन्य महत्वपूर्ण वैधानिक हथियारों के साथ जोड़ कर देखना होगा. पहला है आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 तथा दूसरा, बाल यौन अपराध रोकथाम अधिनियम, पॉक्सो 2012. इस साल अप्रैल से लागू हुए इस कानून में पहली बार मानव तस्करी (ह्यूमन ट्रैफिकिंग) को पारिभाषित किया गया है.

आइपीसी की धारा 370 में मानव तस्करी के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या करते हुए किसी भी बच्चे या वयस्क को बहला-फुसला कर ले जाया जाना या अपहरण करना या धोखा देना या एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित करना आदि को गैरकानूनी अपराध घोषित किया गया. साथ ही धारा 370 (ए) में अलग-अलग सजा के प्रावधान रखे गये हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि गुमशुदा बच्चों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के आधार पर यदि पुलिस छानबीन व कार्रवाई करती है, तो बच्चों को चुरानेवाला प्रत्येक अपराधी बाल तस्करी का अपराधी मान कर दंडित किया जा सकेगा.

नवम्बर 2012 में पारित हुए पॉक्सो कानून में 18 वर्ष तक के बच्चों पर होनेवाले यौन अपराधों की विस्तृत व्याख्या की गयी है. अलग-अलग प्रकार के यौनाचारों को पारिभाषित करके दंड के प्रावधान रखे गए हैं. बाल संरक्षण से संबंधित अधिकारियों या कर्मचारियों द्वारा किये गये अपराधों को जघन्य माना गया है.

बच्चों पर हो रहे अपराध रोकने के लिए कानूनी हिफाजत के अलावा भी उपाय करने जरूरी हैं. पहला, इलाके में अपरिचित व्यक्तियों पर एक सामाजिक निगरानी रखना. खासकर स्कूलों, धर्मस्थलों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों आदि में काम करनेवाले लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाना जरूरी है.

दूसरा, गुमशुदा बच्चों, फुटपाथी बच्चों, खेत-खलिहानों, फैक्टरियों, खदानों आदि में लगे बाल मजदूरों, किशोर गृहों, बाल सुधार गृहों, अनाथालयों, बाल पुनर्वास केंद्रों या बाल आश्रय स्थलों, सरकारी व गैर सरकारी बाल गृहों आदि में प्रत्येक बच्चे की पहचान करके राष्ट्रीय स्तर पर एक केंद्रीकृत ‘डाटा-बेस’ बना कर उसे सभी राज्यों से जोड़ा जाना बहुत जरूरी है. कोई नहीं जानता कि किसी एक राज्य का बच्चा देश के दूसरे भाग में कहां पड़ा है या बंधुआ मजदूरी, भिखमंगी, वेश्यावृत्ति का शिकार हो रहा है.

तीसरा, पुलिस तथा दूसरी जांच एजेंसियों को संवेदनशील, प्रशिक्षित, संसाधनों से युक्त और जवाबदेह बनाया जाये. पुलिस थानों की जवाबदेही सबसे जरूरी काम है. जिन थाना क्षेत्रों से बार-बार बच्चे चुराये जाते हैं, वहां के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए. इन सबके लिए आम जनता में संवेदनशीलता, सरोकार और सरकारों के अंदर राजनैतिक इच्छाशक्ति पैदा करना बहुत जरूरी है.

चौथी, किंतु सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 10 मई 2013 को गुमशुदा बच्चों के संदर्भ में सुनाया गया फैसला, 2 अप्रैल 2013 को आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम में मानव (बाल) तस्करी से संबंधित धारा 370 तथा 370 ए और 14 नवंबर 2012 को पारित बाल यौन अपराध रोक-थाम कानून के प्रावधानों को लागू कराना. जाहिर है कि बच्चों के आर्थिक, दैहिक व भावनात्मक शोषण पर टिकी सरकारें और सरोकार-हीन समाज, इन्हें आसानी से लागू नहीं होने देगा.

जानवरों से भी कम कीमत पर बच्चों की खरीद-फरोख्त करनेवाले, उनके श्रम और देह का व्यापार करनेवाले अपराधियों व व्यापारियों एवं इस काली कमाई से तिजोरियां भरनेवाले राजनेताओं के नापाक-गंठजोड़ को चुनौती देना जरूरी है. बाल शोषण के विरु द्ध चेतनाशील व्यक्तियों और परिवर्तनकारी समूहों को आगे आकर इन कानूनी व्यवस्थाओं को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हुए संगठित रूप से यह लडाई लड़नी होगी.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं बचपन बचाओ आंदोलन के संस्थापक हैं)

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