।। अंजलि सिन्हा ।।
(सामाजिक कार्यकर्ता)
– आज लगभग हर घर में टीवी है. गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में बाजार का बड़ा नेटवर्क भी तैयार है. यहां भी युवा यौन कुंठा पालना सीख जाता है. शिकार तलाशना सीखता है. –
बच्चियों के साथ बलात्कार एवं वहशियाना हरकत की खबरें इन दिनों देश और समाज में चिंता का विषय बनी हैं. इन सभी मामलों में छिटपुट कार्रवाई तथा अफसोस जताने के अलावा ऐसा कोई ठोस तथा दूरगामी असर वाला कदम नहीं उठाया गया ताकि बच्चियों का विकास सुरक्षित वातावरण में हो सके.
जब दिल्ली और आसपास की कुछ घटनाएं तथा दिल दहलानेवाले कृत्य सूर्खियां बने, घटना के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरे, तब समस्या की गंभीरता का एहसास हुआ है. दिल्ली के गांधीनगर की घटना में अत्याचार की शिकार 5 साल की बच्ची का एम्स अस्पताल में इलाज चल रहा है. ऐसी ही खबरें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, राजस्थान तथा अन्य राज्यों से भी रोज ब रोज आ रही हैं.
मध्यप्रदेश के दतिया तथा सिवनी से खबर आयी कि वहां भी 5 साल की एक बच्ची बलात्कार के कारण मौत से जूझ रही है, तो 7 साल की बच्ची की घटना के बाद हत्या कर दी गयी. खरगौन में 8 साल की बच्ची को फुफेरे भाई ने बलात्कार के बाद गड्ढे के पानी में डुबो कर मार दिया. बाद में उसकी लाश बरामद हुई.
इन सभी घटनाओं में मासूम बच्चियों को जिन्हें न तो यौनिक हिंसा के बारे में कुछ पता है, न ही वे अपना बचाव करना जानती हैं, टारगेट किया गया है. इन्हें किसी तरह बहला फुसला कर या अगवा करके हवस का शिकार बना कर या तो जान से मार दिया गया है या घायल कर फेंक दिया गया है.
हम सब कैसे करें इन बच्चियों की पहरेदारी? घर-समाज के ही असामाजिक तत्वों से कैसे बचाएं इन्हें? पड़ोसी से, स्कूल से, खेलने-कूदने वाली जगहों से, हम कहां-कहां उन्हे महफूज रख पायेंगे? आशंका है कि कहीं उनका सारा बचपन ही भय में न बीते. माता-पिता के मन के डर का साया आखिर इन अबोध बालिकाओं के ऊपर भी चाहे अनचाहे पड़ेगा ही जो कि उनके विकास के लिए बाधक बन सकता है. इनके बाहर आने-जाने खेलने-कूदने पर प्रतिबंध लगेगा.
एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक विगत दस वर्षों में बच्चियों पर बलात्कार की घटनाओं में तीन गुना से अधिक की बढ़ोतरी हुई है. ये आंकड़े दर्ज मामलों पर आधारित हैं. यह एक मान्य तथ्य है कि ऐसे बहुसंख्य मामले दर्ज ही नहीं किये जाते. गौर करने लायक यह भी है कि बलात्कार के अधिकतर आरोपितों की उम्र भी 20 से 24 वर्ष की है. सोचने का मुद्दा यह है कि आखिर पढ़ लिख कर अपना भविष्य संवारने के बजाय ये नौजवान अपराधी क्यों बनने लगे? क्यों इनमें इतनी गहरी पैठी है यौनिक कुंठाएं?
क्या ऐसे लोगों की मानसिकता एक दिन में बनती है? इनसान की मानसिकता धीरे-धीरे तैयार होती है. ये अपराधी बड़े होने के साथ ही तरह-तरह के यौन व्यवहार की कल्पनाएं करने लगते हैं, जो वे अपने बड़ों की बातचीत, व्यवहार, गाली-गलौच में इस्तेमाल किये गये शब्दों, हंसी-मजाक के मुद्दों आदि में सुनते-देखते हैं. आज बहुत कम घर ऐसे होंगे जहां टीवी न हो. इस गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में बाजार का बड़ा नेटवर्क भी तैयार है. यहां भी युवा यौन कुंठा पालना सीख जाता है. शिकार तलाशना सीखता है.
सवाल सिर्फ कानून को सख्त बना देने का नहीं है. वह तो होना ही चाहिए और जो भी कानून है वह लागू भी होना जरूरी है, लेकिन कानून और उसकी सख्ती का सवाल तो घटना घटने के बाद आता है. इससे पहले बचाव के उपाय होते हैं, ताकि घटना घटे ही नहीं. इसमें सरकारी और प्रशासनिक चुस्ती के साथ स्वस्थ्य समाज निर्माण के दूरगामी लक्ष्य को भी साधना होगा. अपराधी अपराध करते समय सजा पर विचार नहीं करता. इसलिए सजा कैसी हो इससे ज्यादा जरूरी है कि उसका पकड़ा जाना सुनिश्चित हो.
बच्चे सुरक्षित रहें यह गारंटी करना बड़ों का काम है. इसके लिए तात्कालिक तथा दूरगामी असर वाला दोनों ही प्रयास करना होगा. अपराधी तत्वों पर कानूनी शिकंजा कसने के साथ ही यह समझना होगा कि ऐसी अपराधी प्रवृत्तियां क्यों जन्मती हैं, उन्हें कहां से खाद-पानी मिलता है? मूल कारणों पर गंभीर विचार-विमर्श-शोध-अध्ययन के साथ ही उसे जड़ से नेस्तनाबूद करने की योजना भी सरकार और समाज दोनों को मिलकर बनानी पड़ेगी.
हम ऐसे अपराधियों को मानसिक बीमार मान कर छोड़ नहीं सकते. ऐसा करके हम ऐसे ‘बीमारों’ की संख्या बढ़ते जाने से रोक नहीं पायेंगे. ऐसी मानसिकता किसी टापू पर या हवा में नहीं बनती है. ऐसे घर-परिवारों का भी विश्लेषण किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश कैसे की है. हमारे पालन-पोषण और पूरी तैयारी की प्रक्रिया में ही कहीं कोई पेच है जो लड़कों को शिकारी बनना सिखा रहा है.
शिकार, जंगल के जानवरों का नहीं बल्कि अपने घर-आंगन में साथ-साथ पलनेवालियों से लेकर गांव मुहल्ले तक या कहीं ओर से आनेवाली अनजान लड़कियों का- कोई भी चपेट में आ सकता है. ऐसा प्रतीत होता है कि घर के अंदर ही तो कहीं इन युवकों का मानसिक विकास नहीं किया जा रहा! समाज में विभिन्न तरह से हिंसक बनने के लिए प्रशिक्षण मिल रहा है तथा उर्वरक सामग्री परोसी जा रही है.
ये बच्चे जिन टीवी प्रोग्रामों, प्रचारों आदि को देख कर बड़े हो रहे हैं, वे जो सिखाते हैं उनके बारे में कई बार लिखा जा चुका है. ऐसा नहीं है कि ये सामग्री परोसनेवाले इससे अनजान हैं, लेकिन लगता है कि लोग सबकुछ जान-समझ कर भी अनजान और बेबस दोनों हैं. समाज में मौजूद दूसरी बर्बरताएं तथा गैरबराबरियां भी इसकी जमीन तैयार करती हैं.
जिस घर में बच्चे शुरू से यह देखते हैं कि औरत प्रताड़ित हैं या गैरबराबरी की शिकार हैं, घर की लड़कियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध हैं, वे यह मानने लगते हैं कि ऐसा करना सही और स्वीकृत है. लड़कियों के हकों या उन पर लगाये गये प्रतिबंधों को जायज माना जाता है. उनसे कहा जाता है कि उन पर नियंत्रण या बंधन इसलिए है ताकि उनके साथ कोई ‘अश्लीलता’ न की जाये. ऐसी संभावनाओं को लोग स्वीकार किये रहते हैं.
ताजा समाचार है कि दिल्ली से सटे यूपी के लोनी इलाके की एक 13 साल की लड़की के साथ चार या पांच लड़कों ने छेड़खानी और बलात्कार किया. लड़की ने घर लौट कर बिना किसी को कुछ बताये कमरे में जा कर खुद को खत्म कर डाला. किसी न किसी रूप में किसी न किसी कोने से खबरें आये दिन सब तक पहुंच रही हैं. इन पर काबू पाने, इन पर सख्ती करने, इन्हें तत्काल दंडित करने के साथ ही हर घर और मां बाप को भी सोचना होगा कि बच्चे ऐसा क्यों बन रहे हैं, उन्हें सही सोच में क्यों नहीं ढाला जा रहा है? क्या कोई बेहतर उद्देश्य बच्चों के सामने पेश करने में समाज भी फेल हो गया है?