तब इन पर खूब बहसें भी हुई थीं. यह उम्मीद की गयी थी कि प्रमुख राजनीतिक दल आत्मचिंतन और आत्मसुधार का प्रयास करेंगे. चुनाव आयोग से भी आशा थी कि वह नकारात्मक प्रचार पर लगाम लगाने के लिए ठोस कदम उठायेगा. लेकिन, इन दिनों महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव के लिए हो रहे प्रचार को देख कर निराशा ही हाथ लगती है.
महाराष्ट्र में न केवल आधारहीन आरोप-प्रत्यारोप लगाये जा रहे हैं, बल्कि एक पार्टी के वरिष्ठ नेता की गाड़ी से नगदी बरामद हो रही है, तो दूसरे का नेता मतदाताओं को लुभाने के लिए घूस देने की बात कर रहा है. हरियाणा में जेल में कैदी रहते हुए अगली सरकार चलाने के दावे किये जा रहे हैं, जबकि कानूनी प्रावधानों के मुताबिक ऐसा संभव नहीं है. इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना और असंवेदनशील बयान आये-दिन सुर्खियां बन रही हैं.
महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव राजनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की यह पहली बड़ी राजनीतिक परीक्षा है. उधर, लोकसभा चुनाव में भारी पराजय के झटके से उबरने के लिए कांग्रेस भी जी-तोड़ जोशिश में है. भाजपा-शिवसेना तथा कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस गंठबंधन के टूटने के बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी अपना वर्चस्व स्थापित करने की जुगत में है. हरियाणा में भी हर प्रमुख दल सत्ता की दावेदारी कर रहा है.
ऐसे में जीत के लिए हर हथकंडे अपनाये जा रहे हैं. एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में 34 फीसदी उम्मीदवारों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं, जबकि हरियाणा में सात फीसदी ऐसे प्रत्याशी हैं. महाराष्ट्र में पांच प्रमुख पार्टियों ने 958 करोड़पति खड़े किये हैं, जबकि हरियाणा में 563 करोड़पति मैदान में हैं. प्रत्याशियों द्वारा आचार-संहिता का उल्लंघन आम बात है. क्या ऐसे संभावित जन-प्रतिनिधि लोकतंत्र की मर्यादा की रक्षा और आमजन की सुरक्षा कर सकेंगे? इस प्रश्न पर मतदाताओं को गंभीरता से सोचने की जरूरत है. सिर्फ चुनावी जीत-हार तक सीमित लोकतंत्र सही लोकतंत्र नहीं हो सकता है.