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भाजपा-शिवसेना और कांग्रेस-राकांपा

इतिहास अपने को अक्सर दोहराता है. शिवसेना और भाजपा का चुनाव के बाद गंठबंधन क्या असंभव है? चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात स्थितियां बदल जाती हैं. दुश्मन और विरोधी भी मित्र और सहयोगी बन जाते हैं! महाराष्ट्र में 288 सदस्यीय विधानसभा के 15 अक्तूबर को होनेवाले चुनाव ने सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक दलों के बीच […]

इतिहास अपने को अक्सर दोहराता है. शिवसेना और भाजपा का चुनाव के बाद गंठबंधन क्या असंभव है? चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात स्थितियां बदल जाती हैं. दुश्मन और विरोधी भी मित्र और सहयोगी बन जाते हैं!

महाराष्ट्र में 288 सदस्यीय विधानसभा के 15 अक्तूबर को होनेवाले चुनाव ने सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक दलों के बीच पुराने संबंधों का, विचार आधारित संबंधों का भी कोई अर्थ नहीं होता. भाजपा-शिवसेना का 25 और कांग्रेस-राकांपा का 15 वर्ष का गंठबंधन टूट चुका है. गंठबंधन का टूटना कहीं से भी अप्रत्याशित नहीं था, क्योंकि चुनावी राजनीति का एक ही मकसद है, जिससे सभी दल जुड़े हैं. कभी कांग्रेस से ही टूट कर राकांपा (राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी) बनी थी. शिवसेना जैसी क्षेत्रीय पार्टी एक साथ हिंदुत्व और मराठी अस्मिता से जुड़ी है. इस पार्टी में भी विभाजन हुआ. बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने ‘मनसे’ की स्थापना की. हिंदुत्व से जुड़ी दो पार्टियां भाजपा और शिवसेना अब एक-दूसरे के विरुद्ध हैं. शिवसेना के बाल ठाकरे और भाजपा के गोपीनाथ मुंडे दिवंगत हो चुके हैं. महाराष्ट्र में केवल एक पुराने नेता हैं शरद पवार, जिनकी अब पहले जैसी न साख है, न धाक.

राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के बीच के मेल-मिलाप, तालमेल और गंठबंधन का कभी कोई एक रूप नहीं रहा है. कांग्रेस कई राज्यों में दूसरे-तीसरे नंबर पर है. क्षेत्रीय दलों के साथ या अधीन रहना उसकी मजबूरी है. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बहुमत पाने के बाद क्षेत्रीय दलों को महत्व देना कम किया. अटल-आडवाणी युग और मोदी-शाह युग में अंतर है. महाराष्ट्र में भाजपा के प्रभाव क्षेत्र से बड़ा प्रभाव-क्षेत्र शिवसेना का है. पर, केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद भाजपा शिवसेना को बराबरी के स्तर पर रखना चाहती थी, जो उद्धव ठाकरे को स्वीकार न था. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने हमेशा भाजपा से अधिक विधानसभा सीटें अपने लिए रखी थीं. पिछले चार विस चुनावों (1995, 1999, 2004, 2009) में शिवसेना का वोट प्रतिशत भाजपा से अधिक रहा है. केवल पिछले चुनाव (2009) को छोड़ कर उसके विधायकों की संख्या भी भाजपा विधायकों से अधिक रही है. राजनीतिक वर्चस्व का सीधा संबंध सत्ता की आकांक्षा और उसकी प्राप्ति से है. केंद्र में गंठबंधन का महत्व खत्म हो चुका है. राज्य में अभी इसकी संभावनाएं बनी हुई हैं.

महाराष्ट्र का चुनाव अन्य विधानसभा चुनावों से भिन्न है. पंद्रह वर्ष से वहां कांग्रेस-राकांपा की सरकार थी. राकांपा केवल महाराष्ट्र में है. शिवसेना का भी महाराष्ट्र से बाहर कोई अस्तित्व नहीं है. इन दो क्षेत्रीय दलों के लिए महाराष्ट्र का चुनाव एक प्रकार से जीवन-मरण का प्रश्न भी है. महाराष्ट्र में राकांपा अपने को कांग्रेस से कमजोर पार्टी नहीं मानती. वह कांग्रेस से बराबरी के स्तर पर केवल महाराष्ट्र में बातें कर सकती है. उसे 288 सीटों में से 144 सीटें चाहिए थीं. इसी प्रकार भाजपा भी शिवसेना से अधिक सीटें चाहती थी. वह 135 सीटों पर अड़ी रही. अन्य दलों के लिए भाजपा की मांग 18 सीटों की थी, जिसे स्वीकारना शिवसेना के लिए नुकसानदेह था. इसी प्रकार कांग्रेस द्वारा दी गयी कम सीटों को स्वीकारना राकांपा के अपने वजूद के लिए हानिकर था. क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के समक्ष झुकने को तैयार नहीं हुए.

महाराष्ट्र में इन दो गंठबंधनों का संबंध-विच्छेद राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों का क्षेत्रीय स्तरों पर समान महत्व प्राप्त करने से जुड़ा है. शिवसेना और राकांपा के अड़े रहने के कारण भिन्न हैं. राकांपा पहले की तरह कांग्रेस को महत्व नहीं दे सकती थी, क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की स्थिति अत्यंत कमजोर है. राकांपा ने मायावती की तरह चक्रीय रूप से मुख्यमंत्री पद के ढाई-ढाई वर्ष का प्रस्ताव कांग्रेस के समक्ष रखा था. इसी प्रकार उद्धव ठाकरे भी चाहते थे कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री का पद शिवसेना को मिले. क्षेत्रीय दल हों या राष्ट्रीय दल- सबके एजेंडे में किसी प्रकार से सत्ता प्राप्त करना ही प्रमुख है.

राकांपा ने कांग्रेस से संबंध-विच्छेद की घोषणा भाजपा की घोषणा के बाद की. भाजपा का संबंध-विच्छेद स्वाभाविक था. केंद्र में बहुमत पाने के बाद वह शिवसेना के सामने नहीं झुक सकती थी. उद्धव ठाकरे के सामने महाराष्ट्र था, केंद्र नहीं. भाजपा की मांग स्वीकारना भाजपा को महत्व देना था. भाजपा ने ‘विकास’ को बड़ा मुद्दा बना रखा है. शिवसेना अब भाजपा की तुलना में ‘हिंदुत्व’ के मुद्दे को महत्व दे रही है, मोदी द्वारा मुसलमानों की प्रशंसा की आलोचना कर रही है. भाजपा को उसने ‘पितृपक्ष के कौवे’ और अपने को ‘छत्रपति शिवाजी के सैनिक’ कहा है. उसका मुख्य ‘सामना’ भाजपा से है. भाजपा के पास महाराष्ट्र में कोई बड़ा नेता नहीं है. महाराष्ट्र की सीमा से लगे चार राज्यों- गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और गोवा में भाजपा की सरकारें हैं. पार्टी इन चार राज्यों का उदाहरण देकर महाराष्ट्र में भाजपा को केंद्र की तरह बहुमत देने की बात करेगी, महाराष्ट्र को सर्वाधिक विकसित राज्य बनाने को आश्वस्त करेगी. भाजपा को अब भी मोदी लहर में यकीन है. अमेरिका से आने के बाद मोदी महाराष्ट्र में भाजपा के लिए चुनाव-प्रचार करेंगे.

महाराष्ट्र में धर्मनिरपेक्षता, गुजरात बनाम महाराष्ट्र, हिंदुत्व, मराठी मानुष, दलित, विकास के मुद्दों में से गुजरात बनाम महाराष्ट्र, मराठी मानुष और विकास का मुद्दा प्रमुख रहने की संभावना है. पहली बार महाराष्ट्र में पांच कोणीय मुकाबला होगा, जिसमें भाजपा को सर्वाधिक सीटें मिल सकती हैं. उसे सौ से अधिक सीटों का विश्वास है. पिछले चुनाव (2009) में भाजपा और शिवसेना को 90 सीटें मिली थीं, कांग्रेस और राकांपा को 144. केंद्र में सरकार बनाने के बाद महाराष्ट्र जैसे राज्य में भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी नहीं रह सकती थी. अब केवल शिरोमणि अकाली दल से भाजपा की पुरानी मैत्री है. महाराष्ट्र के इस चुनाव पर नरेंद्र मोदी की विशेष ध्यान होगा. उद्धव ठाकरे के निशाने पर मुख्य रूप से भाजपा रहेगी. गंठबंधन तोड़नेवाले को ‘सामना’ में ‘महाराष्ट्र का दुश्मन’ कहा गया है. राकांपा इस चुनाव सर्वाधिक घाटे में रह सकती है. राकांपा ने समर्थन वापस लेकर और मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने त्याग पत्र देकर राष्ट्रपति शासन की संभावना बढ़ायी है.

गंठबंधन टूटने-बनने की कोई सुनिश्चित प्रक्रिया नहीं होती. राकांपा, भाजपा से गंठबंधन कर सकती है, लेकिन भाजपा ने उसका सहयोग लेने से इनकार किया है. शरद पवार की धर्मनिरपेक्षता के प्रति कांग्रेस के एक धड़े में संदेह रहा है. कांग्रेस का राकांपा का साथ छोड़ कर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला तात्कालिक नहीं, दूरगामी लाभकारी होगा. राकांपा के अजित पवार की छवि जहां दागदार है, वहीं पृथ्वीराज चव्हाण की छवि स्वच्छ है. 1999 के चुनाव में राकांपा और कांग्रेस चुनाव में एक साथ थे, पर बाद में दोनों ने मिल कर सरकार बनायी. इतिहास अपने को अक्सर दोहराता है. शिवसेना और भाजपा का चुनाव के बाद गंठबंधन क्या असंभव है? चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात स्थितियां बदल जाती हैं. दुश्मन और विरोधी भी मित्र और सहयोगी बन जाते हैं!

रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

delhi@prabhatkhabar.in

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