तमिलनाडु की मुख्यमंत्री डॉ जे जयललिता को आय से अधिक संपत्ति जुटाने के अपराध में चार वर्ष की कैद और 100 करोड़ रुपये जुर्माने की सजा सुनायी गयी है.
पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा भ्रष्टाचार निरोधी कानून के तहत दी गयी व्यवस्था के अनुसार अब विधानसभा में उनकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से निरस्त हो जायेगी और वे अगले दस वर्षो तक चुनाव नहीं लड़ सकेंगी. हालांकि जयललिता के लिए ऊंची अदालतों में जाने के रास्ते खुले हैं.
इस प्रकरण ने जनप्रतिनिधियों से जुड़े मुकदमों में सुनवाई व सजा की प्रक्रिया को दुरुस्त करने की जरूरत को फिर रेखांकित किया है. आय से बहुत अधिक संपत्ति जमा करने का यह मुकदमा 18 वर्षो से चल रहा है और अब तक विशेष अदालत, जो जिला न्यायालय के समकक्ष है, से ही फैसला आया है. विलंब का बड़ा कारण देश में न्याय-तंत्र का जटिल एवं शिथिल स्वरूप है. मुख्यमंत्री के वकीलों ने इसका लाभ उठाने से परहेज नहीं किया. यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि अपने रुतबे और रसूख के बूते राजनेता, उद्योगपति व नौकरशाह अदालती कार्रवाई में देरी कराते हैं. इससे अपराध के आरोपित वर्षो तक कानून की जद से बाहर रहकर अपनी कारगुजारियों को अंजाम देते रहते हैं. यह चिंताजनक तथ्य है कि संसद से लेकर पंचायतों तक में दागी नेता भरे पड़े हैं. हालांकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी नयी सरकार ने जनप्रतिनिधियों से संबधित मुकदमों के त्वरित निपटारे के लिए समुचित व्यवस्था करने का अनुरोध अदालतों से किया है, पर इस दिशा में अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है. देश की न्यायिक प्रणाली में सुधारों की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है, जिसके लिए सरकार व न्यायपालिका को मिलकर कदम उठाना होगा.
भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक दबाव से न्यायालय भी अछूते नहीं हैं. पुलिस और अन्य जांच एजेंसियां तो सवालों के घेरे में हैं ही. यही कारण है कि देश में एक ओर जहां अधिसंख्य आबादी बमुश्किल अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ कर पाती है, वहीं कुछ राजनेताओं और नौकरशाहों के पास अकूत धन जमा हो जाता है. शायर मुजफ्फर रज्मी ने जनप्रतिनिधियों के बारे में लिखा है- ‘ये रहबर हैं कि रहजन हैं, मसीहा हैं कि कातिल हैं/ हमें अपने नुमाइंदों का अंदाजा नहीं होता.’