झारखंड में उच्च सरकारी शिक्षा उस जजर्र खाट की तरह है जिसका रस्सियों वाला पूरा ढांचा झूल गया हो और पाये ढकर-ढकर कर रहे हों. मेरे विचार से इससे संबद्घ अधिकतर लोग काम के बोझ तले इस कदर दबे हुए हैं कि उन्हें कराहने की भी फुरसत नहीं मिलती होगी. फिर भी हालात बदतर हुए जा रहे हैं.
यह होना ही है. लंबे समय से लोग सेवानिवृत्त हो रहे हैं, लेकिन रिक्तियां भरी नहीं जा रही हैं. शिक्षण संस्थानों की आधारभूत संरचना से लेकर शिक्षण व्यवस्था तक सबकुछ चरमरा गया है.
खंडहरनुमा भवन, सीलती-दरकती दीवारें, दरारों से झांकता बेतरतीब वनस्पति जगत, न जल व्यवस्था, न नल व्यवस्था. मजाल कि किसी सरकारी शौचालय में सिटकिनी लग जाये, बैठे रहिये गुनगुनाते हुए नाक दबाये. शैक्षणिक व्यवस्था भी उतनी ही बदहाल है. शिक्षक किरानी का काम कर रहे हैं, बचे-खुचे समय में पढ़ा रहे हैं. यूजीसी के मानदंडों पर खरा उतरने के लिए भागदौड़ भी कर रहे हैं.
बची-खुची कसर निकाल लेता है सेमेस्टर सिस्टम जहां शिक्षा गौण है, परीक्षाएं प्रमुख. यह चिंतन-मनन और सार्थक दिशा में पहल करने का समय है. इस सड़ांध के हम सब शिकार हैं और गुनाहगार भी. उदासीनता, आशंका, लालच, भय या मालूम नहीं किन-किन कारणों से हम स्थितियों से समझौता किये जा रहे हैं. चंद उपलब्धियों के लिए विश्वविद्यालय बधाई के पात्र हैं, परंतु अब विकास की दिशा में ठोस पहल की जरूरत है.
अत: संबद्घ समस्त रहनुमाओं से मेरा अनुरोध है कि प्रशासनिक पदों से लेकर शिक्षक एवं शिक्षकेतर कर्मचारियों के समस्त रिक्त पद अविलंब भरे जायें, वरना स्थितियों की भयावहता देखते हुए मुझे कहना ही पड़ेगा, ‘डूबेगी किश्ती तो डूबेंगे सारे, न हम ही बचेंगे, न साथी हमारे’.
डॉ उषा किरण, रांची