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लोकशक्ति की वापसी जरूरी

।। प्रो आनंद कुमार ।।(समाजशास्त्री)– नागरिक शक्ति की छोटी-छोटी इकाइयों के रूप में हर मतदाता को एक-दूसरे से संवाद बनाना होगा. विकल्पहीनता की इस घड़ी में भारतीय लोकतंत्र लोकशक्ति का प्रकाश मांग रहा है. –भारतीय राजनीति अपने अचरज भरे उलट-पुलट की आदत के लिए दुनिया भर में विख्यात है. राजनीतिक पंडितों से लेकर नुक्कड़ की […]

।। प्रो आनंद कुमार ।।
(समाजशास्त्री)
– नागरिक शक्ति की छोटी-छोटी इकाइयों के रूप में हर मतदाता को एक-दूसरे से संवाद बनाना होगा. विकल्पहीनता की इस घड़ी में भारतीय लोकतंत्र लोकशक्ति का प्रकाश मांग रहा है. –
भारतीय राजनीति अपने अचरज भरे उलट-पुलट की आदत के लिए दुनिया भर में विख्यात है. राजनीतिक पंडितों से लेकर नुक्कड़ की टोलियों तक के लिए. इसका अबूझ पहेली बने रहना सबको मालूम है, लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जिनका भूत, वर्तमान और भविष्य कभी नहीं बदलता. इस बारे में गांधी जी ने हम सबके लिए सात बातों की सूची भी दी है.

राजनीति के बारे में दोटूक शब्दों में कहा गया है कि सिद्धांतहीन राजनीति राक्षसी हो जाती है. यह जरूर नहीं कहा गया था कि सिद्धांतहीनता की कितनी मात्र में राजनीति में कितना राक्षसी तत्व पैदा हो सकता है. राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के मूल आधार भाजपा में जो कुछ हो रहा है उसे देख कर सिद्धांतहीनता की राजनीति के तरह-तरह के खतरनाक नतीजों की ताजा सूची बनायी जा सकती है. यह मामला इसलिए और भी ज्यादा गंभीर बन गया है, क्योंकि भारतीय राजनीतिक प्रतिष्ठान का पहला मोरचा सत्ता के लिए गठबंधन बनाये रखने के लिए हर तरह के सिद्धांतों की तिलांजलि दे चुका है.

आज सोनिया गांधी के नेतृत्व में कायम संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए का बीजमंत्र न जनतंत्र है, न राष्ट्र निर्माण है और न ही आम आदमी का सुख-दुख. वहां सिर्फ एक ही चाबी से सभी ताले खुलते हैं. सत्ता के जरिये पैसा और पैसा के जरिये सत्ता. इस मायने में अब भाजपा ने भी कांग्रेस की ही बनायी डगर पकड़ ली है, जहां समाजसेवा और देशहित के बजाय सत्ता प्राप्ति ही साध्य भी है और साधन भी.

एक मायने में दुर्योधन दरबार सजाने की तैयारी शुरू हो गयी है. क्या कौरवों में द्रौपदी के चीरहरण से लेकर पांडवों को लाक्षागृह में जलाने की कोशिश तक कम उत्साह था? अभी ताजा दौर में यहूदियों को सबक सिखाने के लिए हिटलर ने अपने कार्यकर्ताओं में कितनी ऊर्जा भर दी थी. इसीलिए जब सिद्धांत से बड़ा संगठन, संगठन से बड़ी सत्ता का तोता रटंत शुरू हो जाये, तो सभी विवेकवान लोगों को समाज को सतर्क करने लिए आगे आना चाहिए, अन्यथा रावण सीता हरण करेगा, दु:शासन द्रौपदी का चीरहरण करेगा, हिटलर निदरेष यहूदियों का कत्लेआम करेगा और हम किसी न किसी कारण से इनके अहंकार के बेबस साक्षी बनने की नियति में बंध कर रह जायेंगे.

जनतंत्र आम लोगों द्वारा आम लोगों के लिए, आम लोगों का शासन माना जाता है. इसमें जनहित की केंद्रीयता रहती है. जनहित का दूसरा नाम बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय से लेकर अंत्योदय से सर्वोदय तक माना गया है. पर आज भारतीय राजनीति सिद्धांतहीनता के दलदल में धंसते जाने के कारण यह सब भूल रही है. पीने का पानी, बीमार को दवाई, बच्चों की पढ़ाई से लेकर खेती, कारखाने और पर्यावरण की समस्याओं के बारे में अनदेखी की आदत बनती ही जा रही है.

पूरी राजनीतिक प्रक्रिया को कुछ लोगों, परिवारों और अस्मिताओं में सिमटाने का षडय़ंत्र चल रहा है. यह काम सिर्फ सोनिया गांधी के पुत्रमोह से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि इसमें लालकृष्ण आडवाणी से लेकर नरेंद्र मोदी तक की आत्ममुग्धता का भी योगदान है. बिना सिद्धांतों की तरफ लौटे वोट मिल सकता है, शायद कुर्सी भी मिल जाये, पर हमारे समाज को ऐसी राजनीति से स्वराज का प्रकाश और लोकतंत्र का सुख कभी नहीं मिल सकता.

अगर सोनिया गांधी ने समूचे यूपीए को परिवारवाद की बीमारी से पीड़ित किया है तो एनडीए आडवाणी की अगुवाई में कुर्सी की तलाश के लिए समाज की एकता को कमजोर करने की वासना से व्याप्त हुआ है. अब देश में परिवर्तन की बेचैनी को देखते हुए अगर भाजपा की दूसरी कतार के नेताओं ने आडवाणी को ही इस कुर्सी-दौड़ के लिए अप्रासंगिक मान कर हाशिये पर कर दिया है तो शिकायत की गुंजाइश कहां है?

इस प्रक्रिया में राजनीति को राष्ट्र निर्माण और समाजसेवा का सबसे असरदार माध्यम माननेवाले हजारों कार्यकर्ताओं का मोहभंग होना निश्चित है. हर राजनीतिक व्यक्ति अपने मन में किसी न किसी नेता, संगठन, कार्यक्रम और विचारधारा से प्रेरणा प्राप्त करता है, लेकिन उसकी इस आदत और जरूरत को अगर कोई नेता बंधुआ मजदूर की मजबूरी जैसा मान कर परिवारवाद और सिद्धांतहीनता लादना चाहे तो ऐसी अहंकारी कोशिश का कोई भविष्य नहीं होता. इसी तरह अगर परिवर्तन की बेचैनी का इस्तेमाल किसी व्यक्ति के महिमामंडन के लिए किया जाये तो दावं उल्टा भी पड़ सकता है.

भारतीय जनतंत्र को न तो बड़े नेताओं के बेटे-बेटियों की जरूरत है और न ही चुनाव चक्रव्यूह के चतुर रणनीतिकारों की. देश का जनतंत्र सक्रिय नागरिकता, सिद्धांतवादी नेता, जनसेवी संगठन और मानव हितकारी विचाराधारा की चौखट में देश की लोकशक्ति को मजबूत करना चाहता है. इसी प्रक्रिया से 20 रुपये पर जी रहे 77 फीसदी भारत को मुक्ति मिलेगी और इसी रास्ते पर चल कर ओड़िशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार आदि से होते हुए नेपाल तक फैल रही लालपट्टी में अमन-चैन लौटेगा. यही कश्मीर और मणिपुर में परस्पर विश्वास की रचना की राह बनायेगा.

इसी से कॉरपोरेट लूट और उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार के दो पाटों के बीच फंसे किसानों, मजदूरों, छोटे व्यापारियों और उद्योगपतियों को राहत मिलेगी. लेकिन अभी तो बहस का मुद्दा कुछ लोग हो गये हैं, जिनकी ताकत का स्नेत लोकतंत्र और समाजसेवा के बजाय कुछ और है. इस बहस से राजनीति के और पतनशील होने का खतरा है, जबकि बिना राजनीति को फिर से सिद्धांतनिष्ठ रचना और संघर्षो से जोड़े, मौजूदा माहौल में उम्मीद की रोशनी पैदा करना असंभव हो चुका है. फिर चाहे लगाम सोनिया-राहुल के हाथ में ही रहने दिया जाये या मोदी सरीखे विकल्पों को अपनाया जाये.

अभी यह भेद जगजाहिर हुआ है कि एनडीए की मूल आत्मा आरएसएस है. इस पर जदयू और अकाली दल की मासूमियत को सोची-समझी साजिश के तहत धर्मनिरपेक्षता से अपना कदम पीछे खींचना ही कहा जायेगा. आडवाणी जी ने इस्तीफा वापस ले लिया है, लेकिन अब उससे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या हम यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए आरएसएस की कठपुतलियों की तरह काम करनेवाले भाजपा नेतृत्व को बेहतर बताना चाहते हैं? अगर ये दोनों गंठबंधन भारतीय लोकतंत्र के लिए मीठा जहर हैं, तो सीबीआइ की गिरफ्त में फंसे क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोरचा हमें आशा की किरण जैसा दिखता है. पर इनकी सरकारें विभिन्न राज्यों में हैं और इनका देसी-विदेशी कॉरपोरेट से मुधर संबंध किसी भी दृष्टि से भारतीय लोकतंत्र के लिए काम का नहीं है.

इसलिए नागरिक शक्ति की छोटी-छोटी इकाइयों के रूप में हर मतदाता को एक-दूसरे से संवाद बनाना होगा. भारतीय लोकतंत्र विकल्पहीनता की इस घड़ी में लोकशक्ति का प्रकाश मांग रहा है. यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि हम जनहित की राजनीति के बजाय जातिहित की राजनीति करते-करते यहां तक पहुंचे हैं. इसलिए बिजली-पानी, सड़क-नहर, खेती-किसानी और जनता की एकता की राजनीति को फिर अपनाने की जरूरत है.

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