सितंबर का महीना अपने साथ कुछ अच्छे संयोग एक साथ लेकर आता है. शिक्षक दिवस से आरंभ हुआ त्योहारों का सिलसिला पितृपक्ष, राजभाषा पखवाड़ा, हिंदी दिवस, नवरात्रि से उमंगों के नये आयाम जोड़ता आगे बढ़ता जाता है. अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप त्योहारों की तैयारियां जोरों पर होती हैं. वर्षों पुराना राजभाषा पखवाड़े और हिंदी दिवस का रस्म आज भी भरपूर उत्साह से निभाया जाता है.
सरकारी दफ्तर, और प्रतिष्ठानों में तो उत्साह कुछ ज्यादा ही होता है. होना भी चाहिए, आखिर सवाल भाषायी अस्मिता का है. बिहारी पृष्ठभूमि वाला छठ पर्व पिछले पचास सालों में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में सफल रहा, जबकि राजभाषा पखवाड़ा और हिंदी दिवस जैसे राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों की सफलता आंकड़े ही बता सकते हैं. यदि व्यक्ति में इच्छाशक्ति नहीं हो तो किसी भाषा को शक्तिशाली बनाने के लिए कानून या किसी संस्था से उम्मीद करना बेमानी है.
वैसे हमारी भाषा हमारे परिवेश और जीवनशैली से पूरी तरह प्रभावित है. घर से बाहर तक, हमारे संवाद की भाषा को परिभाषित करना कठिन है. नतीजतन हमारी हिंदी हमसे दूर होती जा रही है. गौर से देखें तो कई ऐसे हिंदी शब्द हैं, जिन्हें हम अपनी जिंदगी से निकाल चुके हैं. गुड-मॉर्निंग से सुबह की शुरुआत करने वाले ह्यबेडरूमह्ण ने हमारे सोने के कमरे को बदला, वहीं बाथरूम ने हमारी शौचालय की आदतों को बदल दिया है. दोपहर के खाने की जगह लंच ने ले लिया तो साउन्ड स्लीप ने हमारी मीठी नींद उड़ा दी है. हाट-बाजारों में मार्केट की घुसपैठ हो गयी, है. खबरों के लिए मीडिया और प्रेस है तो हमें ताजा रखने के लिए फ्रेश. ऐसा न हो कि सभ्यता का परिचय देने में हिंदी अंधेरे बंद कमरे में कराहती रह जाये.
।। एमके मिश्रा ।।, रातू, रांची