अगर कांग्रेस अधिनायकवाद और एकाधिकार की तरफ जायगी तो यह जो जनता है न, उसका कान पकड़ कर नीचे कर देगी. इस बार भी वही किया. अगली लड़ाई तानाशाही और लोकतंत्र के बीच होने जा रही है.
यह कहना मुश्किल है कि पहले हबीब का मुर्गा उठा कि बसंतुआ क माई. बिसेसर मिसिर का कहना है अगर मुर्गे ससुरे न भी रहें, तब भी सूरज निकलेगा ही. बसंतुआ के माई की आवाज सुन के. कोई मिले या न मिले, वह हवा से ही लड़ लेगी. बसंतुआ के बाबू एक साथ दो काम करते हैं-दुकान चलाते हैं और राजनीति करते हैं. दुकान में राजनीति करते हैं और राजनीति से दुकान चलाते हैं, इसका फायदा यह होता है कि एक का घाटा दूसरे से उलट-पुलट कर फायदा बना लेते हैं.
बसंतुआ के बाबू चार दिन की काशी यात्र से खाली हाथ लौटे और बताया कि रोहनिया में फंस गया था. बसंतुआ क माई ने जब उमर दरजी से पूछा तो उसने बात ही पलट दी. ‘में’ की जगह ‘से’ कर दिया- ‘रोहनिया से फंस गया था.’ बनारस में चर्चा रही रोहनिया की. रोहनिया में राजनीति चल रही थी. उसी राजनीति ने सब गंडोगोल कर दिया. किसी बनारसी ने जब यह सुना कि बड़ा व्यापारी है, व्यापार में राजनीति मिलाता है, तो उसने दोनों को मिला दिया. बसंतुआ के बाबू को नेता बना दिया अपने को सेवक और रात में राजा तालाब पर भांग खिला कर झोला ले चंपत हो गया. किसी तरह भूखे-प्यासे बे टिकस घर आये. लेकिन रोहनिया की राजनीति उनके पीठ पर चिपकी हुई है.
यही रोहनिया लबे चौराहा जेरे बहस है. लखन कहार ने फुदुक्की से पूछा- रोहनिया कौने बिरादरी में आयी हो? इ बिसुनथवा ओसे कैसे फंसा? बिसुनाथ बसंतुआ के बाबू क नाम है. इसका जवाब फिलहाल कोई नहीं हल कर पाया. लखन ने कहा- पूरब क औरत मरद को सुग्गा बना के पिंजरे में रख लेती है. गनीमत है बिसुनथवा बच के निकल आया. उमर दरजी पैदायशी मुरहा है- औरत क सुख तुम का जानो लखन? बड़े-बड़े रिसी-मुनी बिला गये. चिखुरी से नहीं रहा गया. जोर से डपटे- चोप्प बुड़बक! रोहनिया औरत नहीं है. रोहनिया ताल्लुका है. बनारस संसदीय क्षेत्र में एक विधानसभा. उहां चुनाव रहा. इ ससुरा उहीं चला गवा रहा होई. तभी बिसुनाथ मुंह लटकाये चौराहे की तरफ आते दिखे. नवल ने आवाज दी- आव भाई बिसुनाथ रोहनिया क खबर त द.
बिसुनाथ ने चौराहे का मुआइना किया. बिसुनाथ को मालूम है कौन समान कैसे और किस भाव बेचा जाता है. कहां कितनी टेनी मारनी है और कहां डंडी दबानी है. बिसुनाथ बैठ गये- देखो भाई! हम तो गये रहे सउदा-सुल्फी लेने, लेकिन जब पता चला कि रोहनिया में राजनीति तेज है, तो सोचा वही चल कर दोनों काम निपटा लेंगे. दिन में ओट मांगेंगे औ समान का बाजार भाव भी देख लेंगे. सो घुस गये पार्टी के लंगर में. चभक के खाये, फैल के सोये. पर सुबह मामला उलट गवा. अव्वल तो कोई बात करने को राजी नहीं. हम राजनीति की बात करें तो सामनेवाला बैगन क रेट पूछे. दद्दा बनारस को तो जानते ही हो गाली के नीचे न उतारें. तभी हमको खटका भवा कि दाल में कुछ काला है. हम जिधर जायें पब्लिक ऐसे देखे जैसे हम आदमी नहीं कटहवा कुकुर हैं. सो दद्दा हम भाग के पहुंचे लंगर में कि झोला-झंडा उठायें और चल दें व्यापार में. लेकिन जब हुवां पहुंचे तो लंगर का नामोनिसान नहीं. डेरा-डंडा सब गायब. हुवां सब्जी की दुकान लगी मिली. पूछा कि भैया हियां दफ्तर रहा? काला भुजंग छरहरा बदन, माथे पे ललका तिलक. घूर के देखा- ऊ तो गया अपनी.. अब आगे का बोलूं आप समझदार हैं. थक-हार के जब खीसे में हाथ डाला कि सउदा खरीद के घर चलें, तब तक वह भी साफ. ई रहा बनारस का हाल. किसी तरह घर पहुंचे हैं.
प्रिंसिपल साहब ने सांत्वना दी- भाई साइकिल की सरकार है.. तब तक चिखुरी हत्थे से उखड़ गये- सुनो प्रिंसिपल! गुजरात में, राजस्थान में किसकी सरकार रही? कांग्रेस ने हिला कर रख दिया कि नहीं? याद रखो कि काठ की हांड़ी दोबारा नहीं चढ़ती. तुमने जनता को छला है, उसे झूठा सपना दिखाया है, उसके मर्म को चोट पहुंचाया है, वह किसी को भी नहीं माफ करती. तुम्हारे रेत के किले को वह एक झटके में भस्का देगी. गांधी उसे बहुत कुछ देकर गये हैं. वोट का अधिकार, खुदमुख्तारी का अधिकार, सवाल पूछने का अधिकार, सड़क गरम का अधिकार सब उसे कांग्रेस के मनीषियों ने दिया है. अगर कांग्रेस अधिनायकवाद और एकाधिकार की तरफ जायगी तो तो यह जो जनता है न, उसका कान पकड़ कर नीचे कर देगी. इस बार भी वही किया. अगली लड़ाई तानाशाही और लोकतंत्र के बीच होने जा रही है. जीतेगा गांधी. उसके हत्यारे पानी के लिए तरसेंगे. कमबख्त जब तुम अपनों के नहीं हुए, तो जनता के क्या होगे. गुस्सा मत करो प्रिंसिपल, चाय पियो. नवल से नहीं रहा गया- रोहनिया क्या कर रहा होगा बाबू जी? चिखुरी मुस्कुराये- बनारस के माथे पर लगे कलंक के टीके को पोंछ रहा है.. नवल ने एलान किया, आज हमारी चाय बिसुनाथ को, हम चले पकवान उड़ाने.. भागे रे हवा खराब बा के साथ नवल की साइकिल आगे निकल गयी..
चंचल
सामाजिक कार्यकर्ता
samtaghar@gmail.com