भाजपा सरकार के पहले सौ दिन उम्मीदें जगाने के लिए याद किये जायेंगे, उपलब्धियों के लिए नहीं. जनतंत्र में उम्मीदें जगाने का यह काम विपक्ष को भी करना होता है. यह बात कांग्रेस जितनी जल्दी समझ जाये, उतना ही उसके लिए अच्छा होगा.
किसी भी वयवस्था में शासक-पक्ष हमेशा अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन जनतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष का महत्व भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता. हमारे जनतंत्र में शुरुआती दौर में संसद में कुल मिलाकर एक ही पार्टी का बोलबाला था-कांग्रेस पार्टी का. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तब कहा था कि चूंकि सदन में विपक्ष इतना मजबूत नहीं है, जितना होना चाहिए, इसलिए सत्तारूढ़ पक्ष के कांग्रेसी सदस्यों को ही सरकार के कामकाज पर निगाह रखने की भूमिका भी निभानी चाहिए. मौजूदा लोकसभा में भाजपा भारी बहुमत के साथ पहुंची है. हालांकि कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल है, लेकिन संख्या की दृष्टि से उसके पास इतने भी सांसद नहीं हैं कि वह सदन में विपक्ष के नेता-पद की दावेदारी कर सके. बावजूद इसके, उसे नयी सरकार के कामकाज पर निगाह रखने की महती जिम्मेवारी तो निभानी ही चाहिए.
बहरहाल, भाजपा के नेतृत्ववाली नरेंद्र मोदी सरकार के सौ दिन पूरे हो चुके हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट के जमाने में शासन के सौ दिन की उपलब्धियां गिनाने की एक परंपरा शुरू हुई थी, जो आज दुनिया भर की जनतांत्रिक व्यवस्थाओं में चली आ रही है. हालांकि इस परंपरा का कोई बहुत बड़ा अर्थ नहीं है, लेकिन कहे-किये का हिसाब-किताब का एक अवसर तो यह परंपरा देती ही है. ऐसे में यदि हम सरकार के सौ दिनों को तौल रहे हैं, तो हमें विपक्ष के सौ दिनों के काम पर भी निगाह डालनी चाहिए. एक जिम्मेवार विपक्ष के रूप में लोकसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी ने इन सौ दिनों में क्या किया, यह सवाल मतदाता को भी पूछना चाहिए और स्वयं कांग्रेस को भी अपने आप से पूछना चाहिए. जनतंत्र और विपक्ष, दोनों के स्वास्थ्य की दृष्टि से यह आकलन जरूरी है.
भले ही इससे पहले भी कांग्रेस विपक्ष में बैठ चुकी हो, लेकिन आज की स्थितियां पहले से अलग हैं. आज कांग्रेस को सिर्फ यही नहीं सोचना है कि वह चुनाव क्यों हारी, बल्कि इस बारे में भी विचार करना है कि विपक्ष के रूप में वह अपनी भूमिका को किस तरह अंजाम दे कि भावी विकल्प के रूप में उसकी संभावनाएं बढ़ सकें. सरकार की आलोचना करना विपक्ष का अधिकार है. लेकिन, आलोचना के नाम पर जिस तरह का व्यवहार अकसर सदनों में होता है, उसे देखते हुए यह जरूरी है कि विपक्ष की भूमिका के बारे में पुनर्विचार ही नहीं हो, उसे पुनर्परिभाषित भी किया जाये. कांग्रेस को यह काम करना है, स्वयं अपने लिए भी और जनतांत्रिक परंपराओं को स्थापित करने के लिए भी.
पिछले चुनावों में भाजपा की शानदार जीत का जितना श्रेय पार्टी के नये नेतृत्व, उसकी कार्य-शैली और उसकी रणनीति को जाता है, उससे कहीं अधिक श्रेय पिछली सरकार की गलत नीतियों और तौरतरीकों को जाता है. तब विपक्ष के रूप में भाजपा भी सदन में सिर्फ शोर करती रही थी. आज का जागरूक मतदाता इस बाधक तरह की कार्यशैली को नकारात्मक मानता है. उसे लगने लगा है कि उसके निर्वाचित प्रतिनिधि मतदाता को अपनी जेब में मान कर चल रहे हैं. यह स्थिति सत्तारूढ़ दल और विपक्ष, दोनों के लिए गंभीर है. शायद विपक्ष के लिए ज्यादा, क्योंकि उसे अपने आप को एक समर्थ विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना है. लेकिन पिछले सौ दिनों में कांग्रेस ने जो किया है, उससे ऐसी कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है. देश में बदलाव चाहिए, जो विकास की उम्मीदें जगाये. इसके लिए सरकार और विपक्ष दोनों को निरंतर जागरूक रह कर अपेक्षित विकल्पों को संभव बनाने के लिए जमीन तैयार करनी होगी. सिर्फ विरोध करना ही पर्याप्त नहीं है, विरोध का औचित्य भी सिद्ध करना होगा. पुराने तर्को को नये संदर्भो में समझना होगा और सार्थक नये तर्क गढ़ने होंगे. धर्मनिरपेक्षता का ही उदाहरण लें. सत्ता पक्ष से जुड़े वर्ग जिस तरह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति में लगे हैं, उसका सम्यक उत्तर कांग्रेस नहीं दे पा रही है. बीते सौ दिन में कांग्रेस तो यह भी नहीं समझ पायी कि उसकी इतनी बुरी हार के कारण क्या हैं! यह विडंबना ही है कि परिवारवादी नेतृत्व ही आज भी उसे जोड़े हुए है और यही उसकी कमजोरी भी है. होना तो यह चाहिए था कि इस विडंबना से उबरने की कोई ईमानदार कोशिश होती, लेकिन इस संदर्भ में उठी आवाज का ही गला घोंट दिया जाता है. कांग्रेस के लिए यह समय आत्मनिरीक्षण का है और स्वयं को पुनर्परिभाषित करने का भी है.
भाजपा सरकार के पहले सौ दिन उम्मीदें जगाने के लिए याद किये जायेंगे, उपलब्धियों के लिए नहीं. जनतंत्र में उम्मीदें जगाने का यह काम विपक्ष को भी करना होता है. एक मूर्तिकार की तरह पत्थर काटना भी होता है और उसमें आकृति भी उभारनी होती है. दोनों काम साथ-साथ होने चाहिए. सिर्फ पत्थर तोड़ने से बात नहीं बनेगी. यह बात कांग्रेस जितनी जल्दी समझ जाये, उतना ही उसके लिए अच्छा होगा.
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
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