‘बाबू! कुछ दे दो. भगवान तुम्हारा भला करेगा.’ कुछ पैसे देते हुए मैंने उस बूढ़ी महिला से पूछा, ‘दादी जी! आपको कोई देखनेवाला नहीं है क्या?’ जवाब मिला, ‘हैं तो कई, पर सबने ठुकरा दिया.’ उनकी बात सुन कर मेरा मन कई साल पीछे चला गया. चिलचिलाती धूप थी. धूल उड़ रही थी. लोगों ने सिर ढक रखे थे. एक बूढ़ी महिला सड़क पर पड़ी थी.
बायीं टांग और बायां हाथ टूटा था. चेहरा धंसा था. आंखों में आंसू थे. कपड़े के नाम पर किसी की शर्ट उन्होंने पहन रखी थी. वह भी मटैमली हो चुकी था. उस समय हम विद्यार्थी थे. पास के ही कॉलेज में पढ़ते थे. उस महिला की मदद का ख्याल हमारे दिमाग में आया. कुछ दोस्त इकट्ठा हो गये. बूढ़ी महिला के बारे में लोगों से पता किया.
मालूम हुआ कि इनकी बेटियों ने ही इन्हें घर से बाहर फेंक दिया है. हमने उन्हें घर में वापस रखने का आग्रह किया, पर वे नहीं मानीं. अंत में उन्हीं के घर के बाहर एक आशियाना बनाने पर उन्होंने सहमति दे दी. हममें से कोई लकड़ी का टुकड़ा लेकर आया, तो कोई बांस ले आया. कोई अपने कमरे से चादर ले आया, तो कोई मच्छरदानी लेकर आ गया. लड़कियों ने सिल कर उनके लिए बेड तैयार कर दिया. उन्हें नहलाया. उन्हें अपने कपड़े पहनाये. महिला पहले से बेहतर अवस्था में दिखने लगी. मदद करनेवालों विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने लगी.
मैं हर सुबह लाइब्रेरी जाते समय उनके लिए चाय-ब्रेड लाने लगा और उन्हें खिला कर ही जाता था. कुछ लड़कियां हॉस्टल से लंच ले आती थीं. कुछ विद्यार्थी शाम को उनके लिए जूस और फल ले जाते थे. जबकि कुछ लड़के रात में उन्हें खाना दे कर मच्छरदानी लगा देते थे. यह रोज का नियम बन गया. हमारे काम को लोग कौतूहल भरी नजरों से देखते जरूर थे, लेकिन न तो उनके घर से कोई मदद करने आया और न ही आस-पड़ोस से.
इस बीच हमने उनके लिए वृद्धाश्रम ढूंढ़ना भी जारी रखा. कोई सत्य साईं, तो कोई मदर टेरेसा, तो कोई किसी अन्य महापुरुष के नाम पर थे, लेकिन जब उन्हें रखने की बारी आयी, तो कोई भी बड़ी रकम लिये बिना उन्हें रखने को राजी नहीं हुआ. करीब 25 दिनों बाद महिला की तबीयत बिगड़ी. हमने उन्हें अस्पताल में भरती कराया. फिर वापस लाये. उन्हें ग्लूकोज चढ़ाना जारी रखा. सेवा में लगे रहे. पर अगली सुबह उन्होंने अंतिम सांस ली. हममें से हर कोई रो पड़ा. कोई वहीं पर, तो कोई क्लास रूम में, तो कोई कॉलेज की छत पर आकर. लगा कोई अपना बिछड़ गया. उन्होंने आंखें क्या मूंदीं, जगह-जगह से रिश्तेदारों की फौज जमा हो गयी. जिंदा रहने पर पीने को पानी तक नहीं पूछा, पर मरने के बाद उन्हें दूध से नहलाया. नये कपड़े पहनाये. समाज का यह रूप देख मैं अंदर से हिल गया. अब मैं एक खोज पर हूं. खोज इनसानियत की. ढूंढ़ रहा हूं. अब तक मिली नहीं. आपको मिले, तो मुङो जरूर सूचित कीजिएगा.
शैलेश कुमार
प्रभात खबर, पटना
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