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Friday, March 29, 2024

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भारतीयता के भावलोक में कृष्ण

कृष्ण की कथा का एक बड़ा हिस्सा ब्रजमंडल के गोपालकों की बीवियों-बेटियों यानी गोपियों के साथ रासलीला का है. रासलीला पर कई वासनामय मिथक आधारित हैं, आधुनिक वैष्णवधर्म के घृणित हिस्सों का निर्माण इसी से हुआ है. अजब नाता है, कृष्ण के इंद्रधनुषी व्यक्तित्व से इस देश की आजादी का. बड़े प्रयास हुए कि कृष्ण […]

कृष्ण की कथा का एक बड़ा हिस्सा ब्रजमंडल के गोपालकों की बीवियों-बेटियों यानी गोपियों के साथ रासलीला का है. रासलीला पर कई वासनामय मिथक आधारित हैं, आधुनिक वैष्णवधर्म के घृणित हिस्सों का निर्माण इसी से हुआ है.

अजब नाता है, कृष्ण के इंद्रधनुषी व्यक्तित्व से इस देश की आजादी का. बड़े प्रयास हुए कि कृष्ण का व्यक्तित्व एकरंगी ही रहे, वैसा ना लगे जैसा कि हिंदुस्तान है यानी रंग-बिरंगा. कृष्ण की अद्भुत किंवदंती का ऐतिहासिक पाठ कुछ इस तरह किया गया कि महाभारत के शूरवीर, कूटनैयिक व गीता का अमर उपदेश करनेवाले कृष्ण प्रामाणिक जान पड़ें, वेद-परंपरा का हिस्सा लगें और माखनचोर नंदकिशोर, रासरचैया, बंसीबजैया कृष्ण हिंदू-धर्म के विकास के क्रम में होनेवाली विकृति. भारत में इसकी शुरुआत भारतीय संस्कृति के तत्वों को ओछा बताने के लिए अंगरेजी कलम से हुई और बाद को अंगरेजी में लिखी उस इबारत ने ऐसा असर छोड़ा कि हिंदी से बांग्ला तक एकसुर में कहा जाने लगा- ‘हमें महाभारत के कृष्ण की पौरुष से भरी वीरता तो चाहिए, लेकिन भागवत् के कृष्ण का किशोरसुलभ चुलबुलापन नहीं.’ ऐसा 19वीं सदी के उत्तरार्ध में बांग्ला में बंकिमचंद्र को लगा था, बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल को लगा था.

कृष्ण के लोकरक्षक और लोकरंजक रूप के बीच शुक्लजी ने दो फांक किये और लोकरंजक रूप को साहित्य और समाज दोनों की श्रेष्ठता के लिए हानिकारक माना. शुक्ल जी की मंशा को इन पंक्तियों में पढ़ा जा सकता है- ‘कृष्णभक्ति परंपरा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी मूर्ति को ही लेकर प्रेमतत्व की बड़े विस्तार के साथ व्यंजना हुई है, उनके लोकपक्ष का समावेश उसमें नहीं है. कृष्णभक्तों के कृष्ण प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं से घिरे हुए गोकुल के श्रीकृष्ण हैं, बड़े-बड़े भूपालों के बीच लोकव्यवस्था की रक्षा करते हुए द्वारका के श्रीकृष्ण नहीं हैं.’

बालकृष्ण और किशोरकृष्ण की लीला-वर्णन को समाज और साहित्य की हानि की आशंका से पढ़नेवाले शुक्लजी का बोध किस शास्त्र से बना होगा. क्या अपनी एथनॉलॉजी से नाम कमानेवाले ओरियंटलिस्ट विलियम क्रूक से? शायद हां, क्योंकि साल 1900 के अपने लेख द लीजेंड्स ऑफ कृष्ण में उसने बड़ा साफ अंतर किया था द्वारिकाधीश कृष्ण और गोकुल के नंदनंदन में. क्रूक ने लिखा है- ‘कृष्ण में दिव्यता का आरोप नव-ब्राrाणवाद के दिनों में हुआ, क्योंकि पुराना ब्राrाणवाद चंद पढ़े-लिखे ब्राrाणों-कुलीनों तक सीमित था. ब्राrाणवाद ने बौद्धधर्म से सीखते हुए अपने को लोकधर्म बनाने के ख्याल से न सिर्फ स्त्रीशक्ति की उपासना पर आधारित संप्रदाय को अपने में समाहित किया, बल्कि आदिवासी समुदाय के बीच प्रचलित देवताओं को भी अपने भीतर लिया, कृष्ण उन्हीं में से एक हैं. विष्णु को कृष्णरूप में स्थापित करने के कारण ही पूरे उत्तर भारत के जनसमुदाय में वैष्णवधर्म लोकप्रिय हुआ.’

कृष्ण को आदिवासी समुदाय का देव साबित करने के बाद क्रुक के लिए यह साबित करना आसान था कि कृष्ण की रासलीला सभ्यता के सोपानक्रम पर बहुत नीचे ठहरनेवाली ‘असभ्य जातियों’ का लक्षण है, उस तथाकथित वैदिकधर्म का हिस्सा कत्तई नहीं, जिसे वह सामीधर्म के अपने मॉडल में फिट देख रहा था. कृष्ण की रासलीला के बारे में क्रुक कहता है- ‘कृष्ण की कथा का एक बड़ा हिस्सा ब्रजमंडल के गोपालकों की बीवियों-बेटियों यानी गोपियों के साथ रासलीला का है. रासलीला पर कई वासनामय मिथक आधारित हैं, आधुनिक वैष्णवधर्म के घृणित हिस्सों का निर्माण इसी से हुआ है.’ क्रुक की मानें तो रासलीला का नृत्य कोल जनजाति के नृत्य से मिलता है, जो कहीं न कहीं उर्वरता की प्रकृतिशक्तियों व यौन-क्रिया के आह्वान से जुड़ी होने के कारण घृणित है.

अगर क्रुक के लिए रासरचैया कृष्ण सभ्यता के सोपानक्रम पर नीचे रहनेवाली जातियों की देन थे, तो ‘जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड ऑयरलैंड’ में जे कनेडी इस संबंध की पड़ताल कर रहे थे कि बालकृष्ण कहीं ईसा मसीह के ही बालरूप का विकृत रूप तो नहीं. उन्होंने अपने एक लेख में बताया-‘बालकृष्ण की पूजा इसलिए नहीं होती कि वह महाभारतकालीन नायक कृष्ण का कोई पूर्वरूप है, बल्कि इसलिए कि वह बालक है- हिंदू माताओं का प्रिय बाल-गोपाल. बालक के भीतर दिव्यता एक ऐसा विचार है जिसके लिए दुनिया ईसाई धर्म का ऋणी है और दिव्य बालक के इसी ईसाई विचार की अभिव्यक्ति बालकृष्ण है, चाहे यह अभिव्यक्ति अपूर्ण ही क्यों न हो.’

कृष्ण की किंवदंती को अपने नवेले इतिहासबोध से देखनेवाले शुक्लजी क्योंकर मानते कि जिस बालकृष्ण की कथा को किसी पैगंबरी अवतारणा-कथा की विकृति साबित किया गया है- उसकी प्रणयलीलाएं साहित्य और समाज का संवर्धन भी कर सकती हैं? शुक्लजी से बहुत बाद में किसी साहित्यकार को नहीं, बल्कि एक राजनेता राममनोहर लोहिया को लगा कि भारतीय आत्मा के आस-निराश, आशा-आकांक्षा की महान किंवदंतियां राम, कृष्ण, शिव की कथा न तो इतिहास के लेंस से पढ़ा जा सकता है और ना ही कोरी उपदेशकथा के रूप में.

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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