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सावरकर का हिंदुत्व

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार ravibhushan1408@gmail.com महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ के तुरंत बाद विनायक दामोदर सावरकर सुर्खियों और बहसों में हैं. पंद्रह अक्तूबर को भाजपा की महाराष्ट्र इकाई ने अपने चुनावी घोषणापत्र में सावरकर को ‘भारतरत्न’ से सम्मानित करने की बात कही और अगले दिन 16 अक्तूबर को प्रधानमंत्री मोदी ने महाराष्ट्र के अकोला में […]

रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
ravibhushan1408@gmail.com
महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ के तुरंत बाद विनायक दामोदर सावरकर सुर्खियों और बहसों में हैं. पंद्रह अक्तूबर को भाजपा की महाराष्ट्र इकाई ने अपने चुनावी घोषणापत्र में सावरकर को ‘भारतरत्न’ से सम्मानित करने की बात कही और अगले दिन 16 अक्तूबर को प्रधानमंत्री मोदी ने महाराष्ट्र के अकोला में ‘महाजनादेश संकल्प सभा’ में कहा- ‘वीर सावरकर के संस्कार हैं कि राष्ट्रवाद हमारे मूल में है.
राष्ट्रवाद को हमने राष्ट्र निर्माण के मूल में रखा है.’ सावरकर को भारतरत्न दिये जाने की मांग पर मुख्यत: कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के आलोचनात्मक स्वर उभरे, जिसकी एक प्रमुख वजह गांधी की हत्या के पीछे सावरकर को उत्प्रेरक माना जाना है, जिसे सिद्ध नहीं किया जा सका. विरोधियों ने प्रतिक्रिया स्वरूप गांधी के हत्यारे गोडसे को भी भारतरत्न दिये जाने की मांग की.
सावरकर को लेकर भिन्न मत हैं. एक ओर उनके प्रशंसक, समर्थक, पूजक और आराधक हैं, तो दूसरी ओर उनके विरोधी, निंदक और आलोचक हैं.
‘हिंदुत्व’ भारत में ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ का प्रमुख ‘कार्य’ है. ‘हिंदुत्व’ पद का प्रयोग या निर्माण 19वीं शताब्दी का है. पहली बार 1870 के दशक में बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंद मठ’ में यह आया. सन 1890 के दशक में यह शब्द चलन में था- बंगाल में चंद्रनाथ बसु और महाराष्ट्र में तिलक के यहां. सावरकर ने ‘हिंदुत्व’ का प्रयोग अपनी विचारधारा की रूपरेखा बनाने के क्रम में किया. उसके बाद ‘हिंदुत्व’ सामान्य शब्द और पद न रहकर विचारधारा से जुड़ गया. सावरकर ने हिंदू जीवन-पद्धति को अन्य जीवन पद्धतियों से अलग और विशिष्ट रूप में प्रस्तुत किया. वह ‘हिंदुत्व’ विचारधारा के प्रवर्तक और सिद्धांतकार बने. सारी बहसें इस विचारदृष्टि को लेकर है. इसके समर्थकों की संख्या आज कहीं अधिक है और भारत का लगभग पूरा बौद्धिक वर्ग इस विचारधारा का विरोधी है.
सावरकर के राजनीतिक जीवन के तीन चरण हैं. पहला चरण उन्हें ब्रिटिश सत्ता द्वारा की गयी आजीवन सजा तक (1910) की है, दूसरा चरण 1911 से 1936 तक और तीसरा चरण 1937 से है, जब वे ‘हिंदू महासभा’ के अध्यक्ष बने. पहले चरण में सावरकर सबसे बड़े क्रांतिकारी के रूप में हैं. यह उनके जीवन और व्यक्तित्व का ‘वीर’ पक्ष है. इस दौर में उनमें क्रांतिकारी राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद के बीच एक संतुलन है. वे ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की अवधारणा को प्रतिपादित करनेवाले पहले व्यक्ति नहीं हैं.
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में जन्मा हिंदू राष्ट्रवाद ब्रिटिशों को दिये गये प्रत्युत्तर के रूप में था, जहां प्राचीन भारत का गौरव गान और अपनी श्रेष्ठिता का बोध था. सावरकर की विशेषता यह है कि उन्होंने इस विचारधारा को विधिबद्ध और संहिताबद्ध किया. यह उनके राजनीतिक जीवन के दूसरे चरण में संभव हुआ.
पहले से उनके मस्तिष्क में जो विचार घुमड़ रहे थे, उसे उन्होंने सेल्युलर जेल में संहिताबद्ध (कोडिफाई) किया. उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में विवेकानंद ने भारत को ‘पुण्यभूमि’ के रूप में देखा. विवेकानंद के यहां आध्यात्मिक पक्ष पर बल है, पर सावरकर के यहां ‘राष्ट्र’ और ‘भारत’ का ‘कंसेप्ट’ विवेकानंद से भिन्न है. सावरकर ने अगर ‘हिंदुत्व : हू इज हिंदू’ पुस्तक ने सब कुछ बदल डाला. यह सावरकर की एक वैचारिक पैम्फ्लैट है, जो 1923 में ‘एसेंसिएल्स ऑफ हिंदुत्व’ शीर्षक से प्रकाशित हुई, जिसका 1928 में प्रकाशन दूसरे शीर्षक ‘हिंदुत्व: हू इज ए हिंदू’ से हुआ. इसका दूसरा संस्करण 1942 में आया.
सावरकर के ‘हिंदुत्व’ की धारणा ने ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की आधारशिला रखी. हिंदू राष्ट्रवाद ‘एथनिक’ राष्ट्रवाद का एक रूप है. सावरकर ने ‘पुण्यभूमि’ और ‘पितृभूमि’ या ‘मातृभूमि’ में अंतर किया और यह माना कि जो ‘हिंदू’ नहीं है, वह भारत को अपना ‘राष्ट्र’ नहीं कह सकता. जिनकी पुण्यभूमि दूसरे देशों में है- मुस्लिम, ईसाई, यहूदी आदि की, उनका राष्ट्र भारत नहीं है.
उन्होंने धर्म और संस्कृति को राष्ट्रीय पहचान से जोड़ा. ‘हिंदुत्व’ को उन्होंने एक ‘राजनीतिक कंस्ट्रक्ट’ बनाया. सावरकर की यह विचार दृष्टि या विचारधारा नागपुर में 1925 में केशव बलिराम हेडगेवार के पास पहुंची और उन्होंने ‘हिंदुत्व’ को प्रेरक और प्रेरणात्मक माना.
सावरकर से हेडगेवार ने रत्नागिरि में भेंट की और उनसे हिंदू राष्ट्र को व्यवस्थित करने के लिए बातचीत की. इसी के बाद आरएसएस का जन्म हुआ और छब्बीस वर्षों बाद इस विचारधारा का राजनीतिक दल ‘भारतीय जनसंघ’ का जन्म हुआ.
सोफिया विवि के प्रोफेसर सालो अगस्तीन आरएसएस को ‘हिंदुत्व’ की ‘कोर-संस्था’ कहते हैं. संघ ने ‘हिंदुत्व’ की विचारधारा को केवल प्रचारित ही नहीं किया, उसने इसकी सांगठनिक संरचना (शाखा) जमीनी स्तर तक विकसित की.
सावरकर सिद्धांतकार थे और हेडगेवार संगठनकर्ता. ‘हिंदुत्व’ विचारधारा से जुड़ा राजनीतिक दल भाजपा है, जिसका आरएसएस से नाभिनाल संबंध है. भाजपा इस समय बुलंदियों पर है. सावरकर को ‘भारतरत्न’ तमाम विरोधों के बाद भी दिया जायेगा. साल 2023 में सावरकर की ‘हिंदुत्व’ पुस्तिका की प्रकाशन शती है.
क्या भाजपा इसे यों ही जाने देगी. उसके लिए 2023 का महत्व ‘हिंदुत्व’ विचारधारा की प्रकाशन-शती का होगा. इस बीच जो भी होगा, उसका हम अनुमान भर कर सकते हैं. वैचारिक असहमति और विरोध ही लोकतंत्र को सुदृढ़ एवं विश्वसनीय बनाता है. वैचारिक रूप से असहमत व्यक्तियों को न तो शत्रु माना जा सकता है और न राष्ट्र-विरोधी.

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