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कॉरपोरेट की सामाजिक जिम्मेदारी
डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in देश की अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट मिलते ही वित्त मंत्री ने ‘कॉरपाेरेट सोशल रेस्पोंसिब्लिटी’ यानी सीएसआर पर ढील देने की बात कही है. इसका प्रावधान उन कंपनियों के लिए किया गया है, जिनका लागत मूल्य पांच सौ करोड़ रुपये या उससे ज्यादा है, […]
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
देश की अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट मिलते ही वित्त मंत्री ने ‘कॉरपाेरेट सोशल रेस्पोंसिब्लिटी’ यानी सीएसआर पर ढील देने की बात कही है. इसका प्रावधान उन कंपनियों के लिए किया गया है, जिनका लागत मूल्य पांच सौ करोड़ रुपये या उससे ज्यादा है, जिनका टर्नओवर एक हजार करोड़ रुपये या उससे अधिक है तथा जिनका विशुद्ध मुनाफा पांच करोड़ रुपये या उससे ज्यादा है.
इसके तहत कंपनियों को अपने तीन वर्षों के विशुद्ध मुनाफे का दो प्रतिशत हिस्सा सामाजिक विकास की गतिविधियों के लिए देना होता है. कंपनी एक्ट 2013 के अनुसार, ऐसी क्षमता रखनेवाली कंपनियों को बोर्ड स्तर पर एक ऐसी कमिटी का गठन करना होता है, जो स्वायत्त रूप से कंपनी के सामाजिक दायित्व का निर्वहन करती है. सीएसआर का उल्लंघन विधि के विरुद्ध माना जाता है और इसके लिए आपराधिक दंड का प्रावधान भी है. लेकिन, अब सरकार कह रही है कि सीएसआर में हुई चूक को आपराधिक नहीं माना जायेगा.
सीएसआर के अंतर्गत शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल एवं कला, असमानता को कम करने, ग्रामीण विकास, पर्यवरण संवर्धन आदि परियोजनाएं संचालित करनी होती है. इसके लिए एक्ट के निर्देशानुसार कंपनियों को कार्य योजनाएं बनानी होती हैं एवं उन्हें क्रियान्वित करना होता है. केपीएमजी के वर्ष 2018 के रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्ष सूचीबद्ध सौ कंपनियों में से दो कंपनियां अपनी कार्य योजना प्रस्तुत करने में असफल रही हैं. इसके तहत पिछले वर्ष कंपनियों ने साढ़े सात हजार करोड़ रुपये सामाजिक दायित्व के नाम पर खर्च किया है.
इसमें से 33 कंपनियों ने सीएसआर के तय मानकों से कम खर्च किया है और 44 प्रतिशत कंपनियों ने कार्य योजनाओं को लागू करने में देर होने की बात कही है, जबकि कुछ कंपनियों ने लंबी समय अवधि वाले प्रोजेक्ट के चलने की बात कही है. सीएसआर के अंतर्गत चलनेवाले प्रोजेक्ट को राज्यवार देखने से यह पता चलता है कि इसमें काफी विविधता है. कुछ राज्यों में कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं और कुछ राज्यों में न्यूनतम प्रोजेक्ट चल रहे हैं, तो वहीं किसी में एक भी प्रोजेक्ट नहीं चल रहा है. झारखंड में ही पिछले वर्ष मात्र नौ प्रोजेक्ट चले हैं.
सीएसआर की तरह ही एक डिस्ट्रिक्ट माइनिंग फाउंडेशन ट्रस्ट (डीएमएफटी) का भी वैधानिक प्रावधान है. डीएमएफटी एक्ट के अनुसार खनन क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार कंपनियों से रॉयल्टी लेती है.
इस पैसे का इस्तेमाल संबंधित क्षेत्र के विकास के लिए ही करना होता है. वर्ष 2015 से पहले रॉयल्टी की यह राशि तीस प्रतिशत निर्धारित थी, जिसे बाद में दस प्रतिशत कर दिया गया. डीएमएफटी की यह राशि सरकार द्वारा विकास परियोजनाओं के लिए दी जानेवाली राशि के अतिरिक्त होती है.
डीएमएफटी के अंतर्गत सरकार को छह हजार करोड़ रुपये तक जमा होने का अनुमान है, लेकिन पिछले वर्ष इसकी आधी रकम ही जमा हो पायी है. झारखंड सरकार द्वारा जारी डीएमएफटी के आंकड़ों के अनुसार, केवल चाईबासा (पश्चिमी सिंहभूम) को सबसे ज्यादा आठ सौ साठ करोड़ रुपये की रॉयल्टी मिली है.
सीएसआर एवं डीएमएफटी के मामले में उदासीनता दिखायी देती है. डीएमएफटी से हासिल होनेवाली रॉयल्टी की राशि का उचित इस्तेमाल उस क्षेत्र में रहनेवाले समुदायों के लिए नहीं हो रहा है.
एक आरटीआइ की सूचना के अनुसार, शौचालय एवं पानी को छोड़कर किसी अन्य बुनियादी चीजों पर रॉयल्टी को खर्च नहीं किया गया है, जबकि झारखंड में पश्चिमी सिंहभूम जिले को सबसे ज्यादा रॉयल्टी मिलती है. पश्चिमी सिंहभूम में ही एशिया का सबसे विस्तृत वन क्षेत्र सारंडा का जंगल है. यह आदिवासी बहुल एवं नक्सल प्रभावित क्षेत्र है.
इस क्षेत्र के गांव आर्थिक पिछड़ेपन और शोषण के शिकार हैं. यहां पर्यावरण के साथ-साथ जन-स्वास्थ्य की उपेक्षा है. बड़ी विडंबना तो यह है कि कंपनियों के कचरे की वजह से आस-पास के खेतों की उर्वरता खत्म होने लगी है. सारंडा के जंगली क्षेत्रों में स्कूल और स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी व्यवस्था का घोर अभाव है, जबकि यह क्षेत्र अनुसूचित क्षेत्र होने की वजह से संवेदनशील क्षेत्र है. इस पर तो संवैधानिक रूप से विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.
सामाजिक दायित्व के निर्वहन के लिए कॉरपाेरेट से प्राप्त होनेवाली राशि का इस्तेमाल आम जन की बुनियादी आर्थिक-सामाजिक प्रक्रियाओं पर लगाया जाना चाहिए. आम जन को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कुटीर एवं लघु उद्योगों सहित उनके पारंपरिक शिल्प को मजबूत बनाया जा सकता है.
कृषि एवं उससे जुड़े उत्पादों का बढ़ावा देकर उसे मुख्य औद्योगिक प्रक्रियों से जोड़ा जा सकता है. कला, संस्कृति एवं खेल के क्षेत्र में पहल करके न केवल आम जन को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध किया जा सकता है, बल्कि इसके जरिये बड़े पैमाने पर बेरोजगारी का समाधान भी किया जा सकता है. सीएसआर और डीएमएफटी में ग्राम सभा को प्रत्यक्ष रूप से भागीदार बनाया जाना चाहिए.
यह दुर्भाग्य है कि हमारे देश में ऐसा नहीं हो पाता है, जबकि ग्रामीण लोगों की जीवन शैली को बेहतर बनाने के लिए सीएसआर और डीएमएफटी जैसे वैधानिक प्रावधान हैं. सामाजिक दायित्व के कानूनी प्रावधान को कॉरपाेरेट अपने लिए बोझ की तरह देखता रहा है. ऐसे में उसे कानूनन ढील दिया जाना क्या उचित है?
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