।।सुरेंद्र किशोर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
कभी हॉकी के अंतरराष्ट्रीय मैचों में भारत की धूम मची रहती थी. पर, समय के साथ देश की हॉकी उदास हो गयी. अपने निधन से साल भर पहले हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद ने कहा था कि राजनीति ने हॉकी का सत्यानाश कर दिया. उन्होंने इसके कुछ अन्य कारण भी बताये थे. भारतीय हॉकी की दशा देख कर ध्यानचंद अपने जीवन के अंतिम दिनों में काफी निराश थे. उनका निधन 1979 में हुआ. उन्होंने 1948 में हॉकी का अंतिम मैच खेला था.
हॉकी के बुरे दिन देख कर ध्यानचंद कहते थे कि इस देश के खिलाड़ियों में नहीं, बल्कि चयनकर्ताओं में प्रतिभा की कमी है. 1960 में ध्यानचंद, बलवीर सिंह सीनियर और कुंवर दिग्विजय सिंह बाबू उर्फ केडी सिंह बाबू चयन समिति में थे. लखनऊ में केडी सिंह बाबू के नाम पर स्टेडियम है. इस समिति ने खिलाड़ियों का चयन कर लिया, पर जब चयनकर्ता अपने-अपने घर पहुंचे तो उन्हें पता चला कि टीम में भारी फेरबदल कर दिया गया. ध्यानचंद के अनुसार, 1960 में टीम के चयन में मनमानी के कारण पहली बार भारत ने हॉकी में मुंह की खायी. तब से हॉकी की हालत बिगड़ी तो बिगड़ती ही चली गयी.
खेल में हार या जीत तो चलती ही रहती है. पर यदि देश राजनीति के कारण हार जाये तो वह शर्मनाक बात है. आज यही हो रहा है. आज संसद में भी कोई यह सवाल पूछने को तैयार नहीं है कि हम हॉकी में क्यों हारे? देश के नाम की किसी को चिंता ही नहीं है. हॉकी के मशहूर खिलाड़ी केडी सिंह बाबू ने जब 1978 में आत्महत्या की तो कुछ लोगों ने यह भी कहा कि वे हॉकी की दुर्दशा से विचलित थे. हालांकि कुछ दूसरे लोगों ने इसका कारण कुछ और ही बताया था. याद रहे कि ध्यानचंद के नेतृत्व में भारतीय हॉकी टीम ने तीन बार ओलिंपिक स्वर्ण पदक जीता और बाबू के नेतृत्व में दो बार. पर, ऐसे विश्व प्रसिद्घ खिलाड़ियों द्वारा चयनित टीम को भी अन्य कारणों से दरकिनार कर दिया गया.
मेजर ध्यानचंद ने 1978 में एक भेंट वार्ता में सिकंदर बख्त की खास तौर पर चर्चा की थी. वह केंद्र में मंत्री भी रह चुके थे. ध्यानचंद के अनुसार, ‘सिकंदर बख्त को खुश करने के लिए चेयरमैन की कुरसी सौंप दी गयी. 40-50 साल से हॉकी खेलता रहा हूं. मैंने दुनिया के हर मुल्क में हॉकी खेली. पर, सिकंदर बख्त कहां हॉकी खेलते थे, मुङो पता नहीं.’ ध्यानचंद बताते हैं, ‘तब हॉकी टीम की कोचिंग चल रही थी. मैं पटियाला गया हुआ था. वहां पर खेल संस्थान में मेरे नाम से एक हॉस्टल का उद्घाटन था. बख्त उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे. वहां उनसे मेरा औपचारिक परिचय कराया गया. पर, बख्त ने मुझसे टीम के चयन पर कोई बातचीत नहीं की. इधर-उधर की चर्चाएं होती रहीं.
जानकार लोग कहते हैं कि भारतीय हॉकी टीम के पतन के कारणों में प्रांतवाद और जातिवाद का भी योगदान रहा. आज जब इस देश में क्रिकेट खेल में आ रही तरह-तरह की विकृतियों की चर्चा हो रही है तो इसे याद कर लेना मौजूं होगा कि हॉकी खेल को किस तरह रसातल में पहुंचाया गया. ध्यानचंद ने यह भी शिकायत की थी कि फिलिप्स कप्तान बनने लायक नहीं थे. फिलिप्स की वजह से टीम में आदिवासी क्रिश्चियन रखे गये. हमारे समय में खेल का पिछला रिकॉर्ड देखा जाता था. टीम में शामिल होने के लिए खिलाड़ियों को कड़ा मुकाबला करना पड़ता था. उसके हर मैच का खेल देखने के बाद चयन होता था. अब पिछला रिकॉर्ड नहीं देखा जाता. चयन में भाई-भतीजावाद व जातिवाद चलता है. अयोग्य खिलाड़ियों का चयन हो जाता है.
चयनकर्ता मौका पाते ही व्यक्तिगत दुश्मनी पाल लेते हैं. हॉकी के खेल में पुरानी तकनीक छोड़ कर खिचड़ी तकनीक अपनायी जा रही है. हार का एक कारण यह भी है. ध्यानचंद के जमाने में छोटे पास वाली तकनीक कारगर थी. अब तो खिलाड़ी खुद गेंद लेकर भागता है या अपनी पसंद के खिलाड़ी को ही पास देता है. यूरोपियन खिलाड़ी शारीरिक दृष्टि से इक्कीस पड़ते हैं. इसलिए वे सीधे भिड़ जाते हैं और गेंद हाथ से निकल जाती है. हॉकी में पिछड़ने के कारणों में एक बड़ा कारण पेनाल्टी कॉर्नर है. उसे गोल में बदलने की हमारी क्षमता घटी है. ऐसा अभ्यास की कमी के कारण है. ध्यानचंद के अनुसार हम इसलिए भी जीतते थे कि मैदान में जाने से पहले हम सब खिलाड़ी मिल कर अपनी व्यूह रचना करते थे. अब तो कप्तान और कोच अपने अहं को तुष्ट करते रहते हैं और खिलाड़ी होटल के अपने कमरे में घुस जाते हैं.