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बजट में भाजपा के घोषणापत्र की छाप

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार इस बजट की बड़ी खासियत यह है कि इसे चुनाव प्रचार और बीजेपी के इलेक्शन मेनिफेस्टो से जोड़ कर तैयार किया गया है. अभी तक बजट को देखा जाता था कि पैसा कहां से आयेगा और कहां जायेगा, और उसमें एक बैलेंस बैठाया जाता था. लेकिन.. मोदी सरकार के पहले […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी

वरिष्ठ पत्रकार

इस बजट की बड़ी खासियत यह है कि इसे चुनाव प्रचार और बीजेपी के इलेक्शन मेनिफेस्टो से जोड़ कर तैयार किया गया है. अभी तक बजट को देखा जाता था कि पैसा कहां से आयेगा और कहां जायेगा, और उसमें एक बैलेंस बैठाया जाता था. लेकिन..

मोदी सरकार के पहले आम बजट में बीते बीस बरस के उस आर्थिक सुधार की कलई खोल दी, जो एक तरह की लूट में तब्दील हो चुकी थी. टैक्स से आनेवाले 12 लाख करोड़ रुपये में से 2 लाख करोड़ बिना किसी उपयोग के कहां चले जाते थे, इसे इससे पहले की कोई सरकार न तो देख रही थी, न ही इस पर उंगली रख रही थी. मोदी सरकार ने इसे पकड़ने की कोशिश की, जो कि आगे चल कर एक बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है. इसी 2 लाख करोड़ रुपये को 21 स्कीमों में बांटा गया है. मनरेगा उसमें से एक माना जा सकता है.

मनरेगा का खर्च पहली बार खेती से जोड़ा गया है और इस सच को बताया गया है कि उसके पास ग्रामीण रोजगार की कोई और व्यवस्था नहीं है. ग्रामीण अब भी कृषि पर आश्रित हैं, इसलिए बजट में मनरेगा को कृषि से जोड़ा गया है. यानी बजट के पैसे का कहां, कै से उपयोग होना चाहिए और वे कौन से क्षेत्र हैं जहां पर उपयोग नहीं हो रहा था, उस दिशा में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपनी उंगली रख दी है. मसलन, पहली बार यह माना गया है कि इस देश में कृषि अब भी मॉनसून, आसमान या कहें बरसात के भरोसे है.

इसलिए सिंचाई के लिए खासतौर से अलग से पैसा दिया गया है. इन सबके साथ-साथ खेतिहर किसान और मजदूर को लेकर जिन योजनाओं का ऐलान किया गया, उसमें दो सबसे बड़ी खासियत मानी जा सकती है. पहला तो यह कि जो कर्ज दिया जाये उसको सात फीसदी पर दिया जाये और जो सही वक्त पर लौटा दे, उसमें 3 फीसदी ऐसे ही माफ कर दिया जाये. यानी अलग-अलग तरीके से किसानों को लुभाने, उन्हें राहत देने की बजट में ही व्यवस्था की गयी है.

इस बजट में जहां उंगली नहीं रखी गयी, वह यह है कि एक नेशनल लैंड यूज डेवलपमेंट प्लान बनना चाहिए, जिसके जरिये यह तय होता कि किस लेवल का प्लान हो और किस जिले में कितनी जमीन है, उस जमीन पर कितनी आबादी है, उस जमीन के कितने हिस्से का उपयोग खेती के लिए होना चाहिए, कितना उद्योग में होना चाहिए, कितना रियल स्टेट को दिया जाना चाहिए. यह बजट इस चीज को नहीं पकड़ पाया. जमीन सीमित है और उस सीमित जमीन का उपयोग अगर सही तरीके से सरकार करे, तभी एक सकारात्मक विकास की बात हो सकती है.

इस बजट की बड़ी खासियत यह है कि इसे चुनाव प्रचार और बीजेपी के इलेक्शन मेनिफेस्टो से जोड़ कर तैयार किया गया है. अभी तक बजट को देखा जाता था कि पैसा कहां से आयेगा और कहां जायेगा, और उसमें एक बैलेंस बैठाया जाता था. लेकिन, पहली बार देखा गया है कि बैलेंस बैठाना जरूरी नहीं है, बल्कि सरकार को जिस रास्ते पर आगे बढ़ना है, उस दिशा में वो कौन-कौन से क्षेत्र हैं, जहां काम होना चाहिए. मसलन कृषि विकास को लेकर अनुसंधान होना चाहिए, तो पूसा इंस्टीट्यूट से बात आगे बढ़ती नहीं थी. पहली बार असम और झारखंड में पूसा इंस्टीट्यूट जैसे अनुसंधान केंद्र खोलने की बात हुई है.

आंध्रप्रदेश और राजस्थान में कृषि विश्वविद्यालय खोलने की बात हुई है. हरियाणा और तेलंगाना में हॉर्टीकल्चर की बात हुई है. गांव में ‘इ क्रांति’ लाने के लिए पांच सौ करोड़ का प्रावधान है. किसानों के लिए कर्ज को आसान बनाया जा रहा है. किसानों को आधुनिक तरीके से प्रशिक्षित किया जाये, उसमें किसान टेलीविजन के लिए सौ करोड़ खर्च करने की व्यवस्था है और दूसरी तरफ मिट्टी हेल्थ कार्ड देने की बात भी है. ये सारी परिस्थितियां बतलाती हैं कि सरकार का नजरिया किसान, मजदूर और खेती के पक्ष में है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है.

दूसरे हिस्से में आइये तो वह क्षेत्र है, जिसे सरकार अब तक छूती नहीं थी और पॉलिटिकल पैकेज के तहत वो बात आती थी. उसे बजट से जोड़ा गया है. मसलन बजट में जिक्र कर दिया गया कि कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास में पांच सौ करोड़ रुपया खर्च कर दिया जायेगा. दूसरे हिस्से में बुनकरों की बात है. बनारस का जिक्र खासतौर से हुआ, जिसमें पांच करोड़ रुपये बनारस के बुनकरों को देने की बात की गयी है. पहली बार बंदरगाहों यानी समुद्र के रास्ते को ठीक करने की बात भी है. देश के भीतर जो नदियों को जोड़ने की बात है, उसके लिए भी बजट प्रावधान है. पर्यावरण बिगड़ रहा है, उसके लिए भी है. हिमालय अनुसंधान के लिए भी सौ करोड़ हैं. और इन सबके बीच नदी में आवाजाही कैसे हो सकती है, इसके लिए भी व्यवस्था है. इलाहाबाद से लेकर कैसे हल्दिया तक का रास्ता गंगा से बना सकते हैं.

मोदी सरकार ने खासतौर पर उस औद्योगिक विकास या औद्योगिक रियायत के जरिये विकास को मापने से इंकार किया है, जिसके जरिये बार-बार ये बात आती थी कि इंफास्ट्रर कोई बना सकता है तो सिर्फ इंडस्ट्रियां या कहें कि कॉरपोरेट सेक्टर ही बना सकता है. लेकिन दूसरा हिस्सा इसका ये भी है कि बिना कॉरपोरेट और इंडस्ट्री सेक्टर के हम आगे बढ़ नहीं पायेंगे. उसके लिए हमारे पास पैसा नहीं है. इसीलिए विदेशी निवेश या निवेश के रास्ते कैसे खुलें, इस दिशा में चिंता भी व्यक्त की गयी है और उसके अनुकूल वातावरण बनाने के बारे में भी सोचा गया है. ये एक राहत की बात है कि पहली बार टैक्स वातावरण ठीक होना चाहिए, इस दिशा में बात की गयी.

विभिन्न टैक्स को रिव्यू करने और राज्यों की सहमति एवं उनकी भूमिका बढ़ाने की बात की गयी है. लेकिन जो लोग टैक्स से बच जाते हैं, उन्हें इसके दायरे में लाने के लिए कुछ नहीं किया गया है. इस देश में तकरीबन साढ़े नौ करोड़ लोगों के नाम गाड़ियां रजिस्टर्ड हैं, लेकिन इस देश में आज भी टैक्स देने वालों की तादाद सिर्फ ढाई से तीन करोड़ है. एक बड़ा तबका अभी भी टैक्स से बचता है. इसमें व्यापारी तबका भी है, बड़े किसानों का तबका भी है, और बिचौलिये व छिटपुट व्यापार करनेवाले भी हैं.

बात कुछ विरोधाभासों की करें. बजट में जहां गंगा की सफाई पर जोर है, वहीं गंगा में जहाज चलाने की भी योजना है. जहां खेती पर पैसा खर्च करने की बात है, वहीं गांवों को शहर बनाने की भी बात है. रोजगार बढ़ाने के लिए विदेशी निवेश बढ़ाने पर जोर दिया गया है, लेकिन घरेलू स्तर पर निवेश से रोजगार बढ़ाने पर फोकस नहीं किया गया है.

संघ जिन क्षेत्रों में अपना विस्तार चाहता है, वो ग्रामीण भारत का हिस्सा है. वो अनुसूचित जाति-जनजाति का हिस्सा है और आदिवासी बहुल इलाके का हिस्सा है और इस बजट में उस एजेंडे को भी ध्यान में रखा गया है. केंद्र सरकार का बजट पहली बार अर्थव्यवस्था के बैरोमीटर के बजाय राजनीतिक बैरोमीटर के दायरे में, चुनावी मेनिफेस्टो को लागू कराने की दिशा में आगे बढ़ा हुआ पहला कदम है.

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