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एंटीबायोटिक के खतरे

देश में लापरवाह तरीके से एंटीबायोटिक दवाओं के बढ़ते सेवन से रोगाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती जा रही है. इस कारण बीमारियों की गंभीरता भी बढ़ रही है और दवाएं भी बेअसर हो रही हैं. हालांकि, ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है, पर भारत इससे ज्यादा प्रभावित है. पेंसिलीन की खोज करके मानवता को […]

देश में लापरवाह तरीके से एंटीबायोटिक दवाओं के बढ़ते सेवन से रोगाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती जा रही है. इस कारण बीमारियों की गंभीरता भी बढ़ रही है और दवाएं भी बेअसर हो रही हैं. हालांकि, ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है, पर भारत इससे ज्यादा प्रभावित है.

पेंसिलीन की खोज करके मानवता को रोगों से लड़ने के लिए सक्षम बनानेवाले एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने 1945 में नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते हुए कहा था कि एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब यह किसी भी दुकान से खरीदा जा सकेगा और कोई अज्ञानी इसका सेवन कर रोगाणुओं को प्रतिरोधक बना देगा. आज उनकी आशंका सच हो रही है. हमारे देश में स्वास्थ्य केंद्रों की कमी और नीम हकीमों की भरमार के कारण एंटीबायोटिक के खतरे अधिक चिंताजनक हैं. चिकित्सक की सलाह के बिना दवाएं लेने का चलन भी भारत में कुछ अधिक ही है.

‘सुपर बग’ के नाम से चिह्नित प्रतिरोधक क्षमता से लैस बैक्टीरिया अस्पतालों, मिट्टी और पानी तक में पहुंच गये हैं और इनमें से कई पर किसी भी दवा का कोई असर नहीं होता. इनके प्रसार का सबसे ज्यादा शिकार बच्चे हो रहे हैं. पिछले वर्ष जारी अध्ययनों में बताया गया था कि दुनियाभर में करीब सात लाख बच्चे सालाना ऐसे बैक्टीरिया के कारण मारे जाते हैं, जिनमें 58 हजार भारत के हैं.

साल 2000 से 2015 के बीच वैश्विक स्तर पर इनके उपभोग में 65 फीसदी की बढ़त हुई है. निम्न और मध्य आयवर्गीय देशों में यह बढ़ोतरी 114 फीसदी रही है, जबकि भारत में यह आंकड़ा 103 फीसदी है. इस पृष्ठभूमि में हमारे देश के सामने अनेक चुनौतियां हैं.

भारत महत्वपूर्ण दवाओं का एक प्रमुख निर्माता देश है. इनके कारखानों से निकलनेवाले कचरे से भी बैक्टीरिया नदी-नाले के जरिये फैल रहे हैं. स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के कारण एंटीबायोटिक की सही मात्रा देने और प्रतिरोधक बैक्टीरिया पर रोक लगाने में मुश्किलें आ रही हैं. चिकित्सकों की बड़ी संख्या नये शोधों और निर्देशों से अनजान रहती है.

अक्सर ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जब एंटीबायोटिक की कम खुराक कारगर नहीं होती, तो चिकित्सक उसकी मात्रा बढ़ाते जाते हैं. अच्छे अस्पतालों में भी साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था न होने से ‘सुपर बग’ बैक्टीरिया सामान्य मरीज को भी खतरे में डाल सकता है. इन समस्याओं पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है. सरकारों और चिकित्सा संगठनों को पहल करनी चाहिए तथा लोगों में जागरूकता फैलाने की कोशिश करनी चाहिए. प्रदूषित हवा-पानी और खान-पान में पोषण की कमी से बीमारियां भी बढ़ रही हैं.

इसलिए एंटीबायोटिक के बेमतलब सेवन और दवा-प्रतिरोधक रोगाणुओं पर अंकुश लगाना प्राथमिकता होनी चाहिए. यदि रोगों के प्रसार पर काबू पाने में कामयाबी मिलती है, तो विभिन्न योजनाओं में हो रहे सरकारी और निजी क्षेत्र में निवेश को बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को विस्तार देने में लगाया जा सकता है.

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