रोजमर्रा की जिंदगी में प्लास्टिक का इस्तेमाल लगातार बढ़ता जा रहा है. इससे सहूलियत तो हुई है, परंतु प्लास्टिक कचरे की समस्या भी भयावह होती जा रही है. हमारे देश में रोजाना 25,940 टन कचरा पैदा होता है, जिसमें से 40 फीसदी हिस्सा संग्रहित नहीं हो पाता है. यह नालियों, नदियों या कूड़े में फेंक दिया जाता है. दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बेंगलुरु और कोलकाता समेत 60 शहरों से ही हर दिन चार हजार टन से अधिक कचरा निकलता है.
पिछले साल सरकार को सौंपे गये अपने अध्ययन में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने यह भी रेखांकित किया था कि भारत में प्लास्टिक के इस्तेमाल में सालाना 10 फीसदी की बढ़त हो रही है. इस हफ्ते सरकार ने राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को निर्देश जारी करते हुए कहा है कि उपभोग और प्रबंधन से संबंधित समुचित कदम उठाये जायें, ताकि साल 2022 तक एक बार इस्तेमाल होनेवाले प्लास्टिक से मुक्ति का लक्ष्य पूरा हो सके. यह पहल जरूरी है, पर प्लास्टिक कचरे के आयात पर भी रोक के बिना इसका प्रभावी होना मुश्किल है.
साल 2015 में सरकार ने ऐसे आयात पर पाबंदी लगायी थी, किंतु इस आदेश में संशोधन करते हुए 2016 में विशेष आर्थिक क्षेत्रों में कचरा लाने की मंजूरी भी दे दी गयी. यह समस्या कितनी विकराल है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर में जो दस नदियां समुद्र में 90 फीसदी से अधिक प्लास्टिक कचरा बहाती हैं, उनमें से तीन- गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु- भारत में बहती हैं.
इस कचरे में शहरी के साथ ग्रामीण क्षेत्रों का भी योगदान होता है. अकेले गंगा नदी ही 12 लाख टन सालाना समुद्र में डाल देती है. पहले यह माना जाता था कि पर्यटन, जहाजरानी और मछली कारोबार के बढ़ने से नदियों से भारी मात्रा में प्लास्टिक समुद्र में जा रहा है, लेकिन हालिया शोधों ने बताया है कि नालियों से आया कचरा नदी के जरिये बह रहा है.
इससे सामुद्रिक जीवन पर खराब असर पड़ रहा है, जो पारिस्थितिकी के लिए खतरे की घंटी है. शहरों में इस कचरे से नालियों के जाम होने तथा आवारा पशुओं द्वारा खाने के साथ जगह-जगह प्लास्टिक के बिखराव की समस्या भी है. लापरवाह ढंग से उसे दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाने तथा कचरे को जलाने से वायु प्रदूषण भी बढ़ रहा है. बीते दो दशकों में 25 राज्यों ने अनेक निर्देशों की घोषणा की है तथा केंद्रीय स्तर पर भी 2011, 2016 और 2018 में नियमावलियां बनी हैं.
लेकिन, इन्हें लागू करने और विसंगतियों को दूर करने की कोशिशें संतोषजनक नहीं रही हैं. कचरे से बिजली बनाने के संयंत्रों की स्थापना को एक विकल्प के रूप में अपनाया गया है, पर इससे प्रदूषण बढ़ने की आशंकाएं हैं. पॉलिथिन की जगह बायो-प्लास्टिक थैले के उपयोग का हिस्सा अभी सिर्फ दो फीसदी ही है. ऐसे में सरकारी स्तर पर इस कचरे के दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाने तथा कमतर उपभोग के लिए ठोस नीति और निवेश की जरूरत है.